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[ ३६ ]
श्रीवासुदेवचरणाम्बुजभक्तिलग्नचेता
महीपतिरसो स्वरपाटतेनात् (पाटवेन) ।
घातून निन्द्य जयदेवकवीन्द्र-गीतगोविन्दव्या (मा) रचयत् किल नव्यरूपान् ॥७५॥
( एकलिङ्गमाहात्म्य, पत्र ३६३ )
ऐसा लगता है कि महाराणा को गीतगोविन्दकाव्य बहुत प्रिय था इसीलिए
उन्होंने संस्कृत में टीका लिखने और सूडप्रबन्ध रचने के अतिरिक्त मेवाड़ी
भाषा में भी इसका अनुवाद किया है जिसकी एकाधिक प्रतियां रा. प्रा. प्र. के
संग्रहों में प्राप्त हैं ।
डॉ. कुन्हन राजा ने अपसंस्कृत पुस्तकालय बोकानेर में महाराणा कुम्भ-
कर्णविरचित कामशास्त्र पर किसी रचना की द्विपत्रात्मक खण्डित प्रति होना
लिखा है। संभव है, यह वही 'कामराज-रतिसार ( शतक ) ' नाम की रचना हो,
जो रा० प्रा० प्र० (उदयपुर) के गुटके (१७४२-४८) में लिखित है और जिसके
३३ श्लोक मात्र उपलब्ध हैं।
ऊपर श्रीनाहटाजी के जिस लेख का उल्लेख किया है उसी में उन्होंने गुटके
के पत्राङ्क ६३-१०० पर महाराणा कुम्भा के कामशास्त्रसम्बन्धी ग्रन्थ 'काम-
राजरतिसांरशतं का लिखा होना प्रकट किया है। इसका विवरण देते हुए
उन्होंने लिखा है कि महाराणा कुम्भा ने संगीतराज की तरह नाटकरांज-नामक
ग्रन्थ भी लिखा था, जो भी प्राप्त है । कामराज-रतिसार की रचना कलशमेरु
पर, संवत् १५१६ में विजया दशमी को हुई और इस प्रति के हाशिये पर 'श्री
हीराणंदसूरिदत्तोपदेशेन' लिखा है, अतः उनका इस रचना से अवश्य सम्बन्ध रहा
है । श्रागे जो प्रशस्ति-श्लोक दिए गए हैं वे प्रायः वही है जो कन्ह व्यास कृत
एकलिङ्गमाहात्म्य के प्रारम्भ में दिए गए हैं । अन्तिम पुष्पिका इस प्रकार उद्धृत
की गई है ।
"श्री हीरागंदसू रिग रुक विजनतामान्य एतत्करोति
शास्त्रं श्रीकामराज रतिरससहितं पर्वबाणेन्दुवर्षे ॥१॥
कविराज एष विरुदं दत्ते येषां हि सदसि कुम्भनृपः ।
विजयन्ते गुरवः श्रीहीरागंदसूरीन्द्राः ॥२॥
एहि रे याहि रां (रे) चक्रे केन कुम्भस्य संश (स ) दि ।
हीरानन्दकवेनित्यं प्रतिष्ठा खलु दृश्यते ॥३॥
इति श्रीकामराज रतिसारशतं परिपूर्णम् ॥छ ॥ श्रीरस्तु ॥ शुभ भवत ॥"
ऐसा लगता है कि चित्रकूट प्रशस्ति में जिन चार नाटकों का मेवाड़ी,
कर्णाटी आदि भाषाओं में महाराणा द्वारा रचा जाना लिखा है उन्हीं के साथ
श्रीवासुदेवचरणाम्बुजभक्तिलग्नचेता
महीपतिरसो स्वरपाटतेनात् (पाटवेन) ।
घातून निन्द्य जयदेवकवीन्द्र-गीतगोविन्दव्या (मा) रचयत् किल नव्यरूपान् ॥७५॥
( एकलिङ्गमाहात्म्य, पत्र ३६३ )
ऐसा लगता है कि महाराणा को गीतगोविन्दकाव्य बहुत प्रिय था इसीलिए
उन्होंने संस्कृत में टीका लिखने और सूडप्रबन्ध रचने के अतिरिक्त मेवाड़ी
भाषा में भी इसका अनुवाद किया है जिसकी एकाधिक प्रतियां रा. प्रा. प्र. के
संग्रहों में प्राप्त हैं ।
डॉ. कुन्हन राजा ने अपसंस्कृत पुस्तकालय बोकानेर में महाराणा कुम्भ-
कर्णविरचित कामशास्त्र पर किसी रचना की द्विपत्रात्मक खण्डित प्रति होना
लिखा है। संभव है, यह वही 'कामराज-रतिसार ( शतक ) ' नाम की रचना हो,
जो रा० प्रा० प्र० (उदयपुर) के गुटके (१७४२-४८) में लिखित है और जिसके
३३ श्लोक मात्र उपलब्ध हैं।
ऊपर श्रीनाहटाजी के जिस लेख का उल्लेख किया है उसी में उन्होंने गुटके
के पत्राङ्क ६३-१०० पर महाराणा कुम्भा के कामशास्त्रसम्बन्धी ग्रन्थ 'काम-
राजरतिसांरशतं का लिखा होना प्रकट किया है। इसका विवरण देते हुए
उन्होंने लिखा है कि महाराणा कुम्भा ने संगीतराज की तरह नाटकरांज-नामक
ग्रन्थ भी लिखा था, जो भी प्राप्त है । कामराज-रतिसार की रचना कलशमेरु
पर, संवत् १५१६ में विजया दशमी को हुई और इस प्रति के हाशिये पर 'श्री
हीराणंदसूरिदत्तोपदेशेन' लिखा है, अतः उनका इस रचना से अवश्य सम्बन्ध रहा
है । श्रागे जो प्रशस्ति-श्लोक दिए गए हैं वे प्रायः वही है जो कन्ह व्यास कृत
एकलिङ्गमाहात्म्य के प्रारम्भ में दिए गए हैं । अन्तिम पुष्पिका इस प्रकार उद्धृत
की गई है ।
"श्री हीरागंदसू रिग रुक विजनतामान्य एतत्करोति
शास्त्रं श्रीकामराज रतिरससहितं पर्वबाणेन्दुवर्षे ॥१॥
कविराज एष विरुदं दत्ते येषां हि सदसि कुम्भनृपः ।
विजयन्ते गुरवः श्रीहीरागंदसूरीन्द्राः ॥२॥
एहि रे याहि रां (रे) चक्रे केन कुम्भस्य संश (स ) दि ।
हीरानन्दकवेनित्यं प्रतिष्ठा खलु दृश्यते ॥३॥
इति श्रीकामराज रतिसारशतं परिपूर्णम् ॥छ ॥ श्रीरस्तु ॥ शुभ भवत ॥"
ऐसा लगता है कि चित्रकूट प्रशस्ति में जिन चार नाटकों का मेवाड़ी,
कर्णाटी आदि भाषाओं में महाराणा द्वारा रचा जाना लिखा है उन्हीं के साथ