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को उपकृत किया है । उसी वर्ष में हिन्दू विश्वविद्यालय नेपालराज्य संस्कृत
ग्रंथमाला' के अन्तर्गत डॉ० कुमारी प्रेमलता शर्मा ने 'संगीतराज' के प्रथम दो
रत्नकोशों अर्थात् 'पाठ्यरत्नकोश' और 'गीतरत्नकोश' का बहुत ही परिश्रम
योग्यतापूर्वक सम्पादन किया है । निःसन्देह, यह बहुत ही मूल्यवान् प्रकाशन है,
इसमें विदु
का विशद विवेचन किया है जो अत्यन्त उपयोगी और ज्ञानवर्धक है। राजस्थान,
प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान से तृतीय रत्
भाग के रूप में शोध-जगत् में जाने-माने विद्वद्वरिष्ठ श्री रसिकलाल परिख के
सम्पादन में प्रकाशित हो चुका है। दूसरे भाग में श्री परिखजी ने गम्भीर
श्र
अध्ययनगर्भित भूमिका लिखी है । यह संस्करण
डॉ० कुन्हन राजा और डॉ. कु० प्रेमलता दोनों ही ने अपने-अपने सम्पादन
में संगीतराज के कर्तृत्व के विषय में 'कुम्भकर्ण'
पर विचार किया है और यथाशक्य उसका समाधान भी करने का प्रयास
किया है । यह उलझन इसलिए उत्पन्न हो गई थी कि संगीतराज के प्रथम कोश
'पा
और जिसमें महाराणा की मूल वंशावली मिल जावे। इसकी जो भी प्रतियाँ
मिलीं वे या तो खण्डित
हैं। सौभाग्य से बड़ोदा ओरियंटल इन्स्टीट्यूट के संग्रह में इस कोश की सम्पूर्ण
एवं महाराणा की वंशावली-युक्त प्रति प्राप्त हो गई है। यह प्रति श्रीमत्कवीन्द्रा-
चार्य के संग्रह की है । इसी प्रति के आधार पर 'पाठ्यरत्नकोश' का एक
और संस्करण राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान से प्रकाशित किया जा रहा है
जिसके मूल पाठ का मुद्रण हो चुका है और बहुत शीघ्र ही
सहित विद्वानों के समक्ष प्रस्तुत किया जा सकेगा। इस संस्करण का पाठ-सम्पा-
दन इन पंक्तियों के लेखक ने ही किया है ।
'
यह तो निर्विवाद रूप से सबने स्वीकारा है कि संगीतराज का कर्ता महा-
राणा कुम्भकर्ण के अतिरिक्त कोई नहीं है; परन्तु कालसेन फिर कौन था ? इस
समस्या पर विद्वानों ने अपने-अपने ढंग से विचार किया है । डॉ. राजा और
डॉ. शर्मा ने भी प्रकाश डाला है और प्रो. रसिकलालजी ने भी अपनी तथ्यपूर्ण
गवेषणा को नृत्यरत्नकोश को भूमिका में सन्दर्भित किया है। इधर, मेरे कार्य-
काल के सहयोगी और निकटस्थ मित्र श्री व्रजमोहन जावलिया, एम. ए. ने भी
इस विषय में एक गवेषणापूर्ण लेख लिखा है जो बीकानेर से 'विश्वम्भरा' में
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