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सुखं भवतु ॥
इससे ज्ञात होता है कि यह अवचूर्णि किसी १०१ श्लोकों की वृत्ति के
आधार पर रची गई है ।
↑
अन्य कतिपय श्लोकों के पाठान्तर इस प्रकार है
श्लो० २० पंक्ति २
३
37
→
38
नो चक्रे तीक्ष्णधारे निपतति न कृतः सन्नतो येन मूर्द्धा,
दर्प्
यस्यास्तस्यापि दूरं कमल
शर्वा
गन्ध
र्लोकैः सत्कारपूर्वं विविधगुणग
लॉक: सत्कारपूर्व
3
सानन्दं स्तूयमाना शिरसि हिमवता चुम्बिता मेनया
स्स्थाण्वङ्गं भूय इच्छु: सुखयतु भ
99
"
अन्य कतिपय श्लोकों के पाठान्तर इस प्रकार है--
श्लोक २
२३
31
, १ माऽसून् विहासी
,,.२
" " ३ प्
०
" २१ " १ •••माऽसून् विहासी
" २१ " २ रर्थेश स्था
" २३ " ३ •••भानुमित्यात्मद
"३
" २४
{"
२६
,, २
२६
" २६ " २ पलान्तेवोत्पत्य पत्युस्तलभुजयुगलस्यालमालम्
" २९ " १ गाहस्व व्योममार्
" ३८ " ४ •••ज
" ३९ " ४ पातालं पंकपानोन्मुख इव
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१
३८ ४
४
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महाराणा कुम्भकर्ण का बहुमुखी व्यक्तित्व ऐसा है कि जिस पर मध्यकालीन
भारत और विशेषत: राजस्थान गर्व कर सकता है । कला और शास्त्राध्ययन के
विकास में उनका योग चिरस्मरणीय रहेगा। यह विचारणीय है कि भारत के
इतिहासज्ञों और इतिहासकारों ने इन महाराणा के पराक्रम, राजनीतिक सूझ-
वू श्री
बूझ और स्वराज्य
ध्यान नहीं दिया। कला, साहित्य और संस्कृति के पोषण
पर ध्यान न देना तो उत्तरकालवर्ती तथाकथित इतिहासकारों का रिवाज हो
बन गया था। कुछ मुसलमान इतिहासलेखकों का तो वतीरा ही यह रहा कि
विधर्मी के पर्वताकार पराक्रम को भी राई बराबर बताना और स्वधर्मी को
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