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मुख्यवाचनाचार्य
की
प्रति के कलेवर का परिचय इस प्रकार है-
"
पंक्ति १७, अक्षर ५१, अन्तिम पत्र में पंक्ति ११, दूसरी तरफ रिक्त ।"
..
इस सूचना के अनन्तर व
उत्पन होना स्वाभाविक था। राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान के जोधपुर-संग्रह
में यहां के तत्कालीन सम्मान्य संचालक मुनि श्रीजिन
सूचियों
दो प्रतियां उपलब्ध हु
थी । यह प्रति २०वीं शती की है और प्रायः उसी प्रति से नकल की गई लगती
है जिसका श्री नाहटाजी ने जिक्र किया है। विलुप्त
हुए हैं और इसके
घा
आश्रय अधिक लेना पड़े, ऐसी स्थिति है । इस प्रति की माप सेण्टीमीटरों में
२७.७×१३.५ है; प्रत्येक पृष्ठ पर १२ पंक्तियां, प्रति पंक्ति में ४२
पत्र संख्या केवल १० है। कागज़ नया है ।
3
.
2
दूसरी प्रति सं. १७३७६ पर मिली जो प्राचीन, पूर्ण, शुद्ध और स्पष्ट है।
इसका विवरण इस प्रकार है
प्रतिवृष्ठ पंक्ति १७; प्रतिपंक्ति अक्षर ५१; लिपिसंवत् १६५५ वि०; लिपि
कर्ता - श्रीवल्लभ उपाध्याय ।[^१] लिपिस्थान
प्रतिवृष्ठ पंक्ति १७; प्रतिपंक्ति
क
यह नाहटाजी को प्राप्त प्रति से २० वर्
----------------
[^१] श्रीवल्लभ उपाध्याय
यह नाहटाजी को प्राप्त प्रति से २० वर्ष पुरानी है ।
J
2
१ श्रीवल्लभ उपाध्याय
प्रबोध' नाम्नी टीका तथा अभिधान
प्रथम
हुई थी । इन दोनों ही टीकाओं की १७वीं शताब्दी में लिखित प्रतियां राजस्थान प्राच्य
विद्या प्रतिष्ठान के जोधपुर संग्रह में सं० ४३०५ एवं ५
ने '
प्रकार उद्धृत है
"इति
सकलवा