2023-02-24 17:17:23 by ambuda-bot
This page has not been fully proofread.
[ २८ ]
सूरिसन्तानीयवाचनाचार्य श्री श्री श्री समयकलसगरिगगजेन्द्राणाम् ॥ तत्शिष्य-
मुख्यवाचनाचार्यघूर्यवर्य श्री श्री श्री सुखनिधानगणिवराणाम् शिष्य पंडितसकल-
की तिगणिलिपिकृतं पुस्तकम् ॥ "
प्रति के कलेवर का परिचय इस प्रकार है-
" जैनभवन प्रति नं० १५२६ पत्र ४६ ( दीमकभक्षित, नष्टप्राय) प्रतिपत्र-
पंक्ति १७, अक्षर ५१, अन्तिम पत्र में पंक्ति ११, दूसरी तरफ रिक्त ।"
..
इस सूचना के अनन्तर वरिणत वृत्ति की सम्पूर्ण प्रति के लिए जिज्ञासा
उत्पन होना स्वाभाविक था। राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान के जोधपुर-संग्रह
में यहां के तत्कालीन सम्मान्य संचालक मुनि श्रीजिन विजयजी ने भी यहां की
सूचियों धादि का अच्छी तरह प्रवलोकन किया। इस संग्रह में इस वृत्ति की
दो प्रतियां उपलब्ध हुई । एक तो संख्या १०२३६ पर, जो यहां पहले प्रा गई
थी । यह प्रति २०वीं शती की है और प्रायः उसी प्रति से नकल की गई लगती
है जिसका श्री नाहटाजी ने जिक्र किया है। विलुप्त प्रक्षरों के स्थान रिक्त छूटे
हुए हैं और इसके प्राधार पर पाठ का अनुसन्धान करने में अनुमान की ही
घाश्रय अधिक लेना पड़े, ऐसी स्थिति है । इस प्रति की माप सेण्टीमीटरों में
२७.७×१३.५ है; प्रत्येक पृष्ठ पर १२ पंक्तियां, प्रति पंक्ति में ४२ प्रक्षर हैं
पत्र संख्या केवल १० है। कागज़ नया है ।
3
.
2
दूसरी प्रति सं. १७३७६ पर मिली जो प्राचीन, पूर्ण, शुद्ध और स्पष्ट है।
इसका विवरण इस प्रकार है
-माप २५.६x१०.५ से. मी.; पत्र सं. ४५;
अक्षर ५१; लिपिसंवत् १६५५ वि०; लिपि -
लिपिस्थान -- नागपुर (नागौर) स्पष्ट है कि
प्रतिवृष्ठ पंक्ति १७; प्रतिपंक्ति
कर्ता - श्रीवल्लभ उपाध्याय
यह नाहटाजी को प्राप्त प्रति से २० वर्ष पुरानी है ।
J
2
१ श्रीवल्लभ उपाध्याय स्वयं बड़े विद्वान् थे। उन्होंने सिद्ध- हेमलिङ्गानुशासन पर 'दुर्गंपद-
प्रबोध' नाम्नी टीका तथा अभिधान चिन्तामरिगनाममाला पर सारोद्धार टोका लिखी है
प्रथम टोका को रचना वि० सं० १६६१ में महाराजा सूरसिंह के राज्यकाल में जोधपुर में
हुई थी । इन दोनों ही टीकाओं की १७वीं शताब्दी में लिखित प्रतियां राजस्थान प्राच्य
विद्या प्रतिष्ठान के जोधपुर संग्रह में सं० ४३०५ एवं ५६०८ पर प्राप्त हैं। इन्हीं उपाध्याय
ने 'प्रोकेशोप केशपदद्वयदशार्थी' भी लिखी है जिसकी पुष्पिका 'पट्टावलिसमुच्चय में इस
प्रकार उद्धृत है....
"इति श्रो-केशोपकेशपदद्वयदशार्थी समाप्ती ॥ संवत् १६५५ वर्षे ॥ धीमद्विकमन गर्
सकलवा दिवंदकंद कुद्दालश्री कवकुदाचार्यसंतानीयश्री पच्छ्रेसिद्धसूरीणां आग्रहतः श्रीमद्गृहत्खर-
सूरिसन्तानीयवाचनाचार्य श्री श्री श्री समयकलसगरिगगजेन्द्राणाम् ॥ तत्शिष्य-
मुख्यवाचनाचार्यघूर्यवर्य श्री श्री श्री सुखनिधानगणिवराणाम् शिष्य पंडितसकल-
की तिगणिलिपिकृतं पुस्तकम् ॥ "
प्रति के कलेवर का परिचय इस प्रकार है-
" जैनभवन प्रति नं० १५२६ पत्र ४६ ( दीमकभक्षित, नष्टप्राय) प्रतिपत्र-
पंक्ति १७, अक्षर ५१, अन्तिम पत्र में पंक्ति ११, दूसरी तरफ रिक्त ।"
..
इस सूचना के अनन्तर वरिणत वृत्ति की सम्पूर्ण प्रति के लिए जिज्ञासा
उत्पन होना स्वाभाविक था। राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान के जोधपुर-संग्रह
में यहां के तत्कालीन सम्मान्य संचालक मुनि श्रीजिन विजयजी ने भी यहां की
सूचियों धादि का अच्छी तरह प्रवलोकन किया। इस संग्रह में इस वृत्ति की
दो प्रतियां उपलब्ध हुई । एक तो संख्या १०२३६ पर, जो यहां पहले प्रा गई
थी । यह प्रति २०वीं शती की है और प्रायः उसी प्रति से नकल की गई लगती
है जिसका श्री नाहटाजी ने जिक्र किया है। विलुप्त प्रक्षरों के स्थान रिक्त छूटे
हुए हैं और इसके प्राधार पर पाठ का अनुसन्धान करने में अनुमान की ही
घाश्रय अधिक लेना पड़े, ऐसी स्थिति है । इस प्रति की माप सेण्टीमीटरों में
२७.७×१३.५ है; प्रत्येक पृष्ठ पर १२ पंक्तियां, प्रति पंक्ति में ४२ प्रक्षर हैं
पत्र संख्या केवल १० है। कागज़ नया है ।
3
.
2
दूसरी प्रति सं. १७३७६ पर मिली जो प्राचीन, पूर्ण, शुद्ध और स्पष्ट है।
इसका विवरण इस प्रकार है
-माप २५.६x१०.५ से. मी.; पत्र सं. ४५;
अक्षर ५१; लिपिसंवत् १६५५ वि०; लिपि -
लिपिस्थान -- नागपुर (नागौर) स्पष्ट है कि
प्रतिवृष्ठ पंक्ति १७; प्रतिपंक्ति
कर्ता - श्रीवल्लभ उपाध्याय
यह नाहटाजी को प्राप्त प्रति से २० वर्ष पुरानी है ।
J
2
१ श्रीवल्लभ उपाध्याय स्वयं बड़े विद्वान् थे। उन्होंने सिद्ध- हेमलिङ्गानुशासन पर 'दुर्गंपद-
प्रबोध' नाम्नी टीका तथा अभिधान चिन्तामरिगनाममाला पर सारोद्धार टोका लिखी है
प्रथम टोका को रचना वि० सं० १६६१ में महाराजा सूरसिंह के राज्यकाल में जोधपुर में
हुई थी । इन दोनों ही टीकाओं की १७वीं शताब्दी में लिखित प्रतियां राजस्थान प्राच्य
विद्या प्रतिष्ठान के जोधपुर संग्रह में सं० ४३०५ एवं ५६०८ पर प्राप्त हैं। इन्हीं उपाध्याय
ने 'प्रोकेशोप केशपदद्वयदशार्थी' भी लिखी है जिसकी पुष्पिका 'पट्टावलिसमुच्चय में इस
प्रकार उद्धृत है....
"इति श्रो-केशोपकेशपदद्वयदशार्थी समाप्ती ॥ संवत् १६५५ वर्षे ॥ धीमद्विकमन गर्
सकलवा दिवंदकंद कुद्दालश्री कवकुदाचार्यसंतानीयश्री पच्छ्रेसिद्धसूरीणां आग्रहतः श्रीमद्गृहत्खर-