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'राजस्थान भारती' का 'महाराणा कुम्भा विशेषांक' प्रकाशित हुआ; उसमें श्री
भँवरलाल नाहटा ने अपने लेख 'महाराणा कुम्भा
यह सूचना दी कि "
प्राप्त नहीं हुई थी ।
प्राप्त हो गई है। पर साथ ही यह लिखते हुए भी बड़ा दुख होता है कि बंगाल
की सर
प्रति को भी उसने इतनी क्षति पहुँचाई कि सारे पन्ने चिपक गए और आदि
अन्त के पत्र भी इतने खराब हो गए है कि बहुत प्रयत्न करने पर भी प्रारम्भिक
श्लोक और अंत की प्रशस्ति की भी पूरी नकल नहीं की जा स
जितना अंश या जितने अक्षर पढ़े जा सके उसकी नकल आगे दी जा रही है ।
सम्भव है, खोज करने पर अन्य किसी हस्तलिखित ग्रन्थ-संग्रहालय में इसकी
पूरी और शुद्ध प्रति मिल जाय । इस महत्वपूर्ण वृत्ति का प्रकाशन अवश्य होना
चाहिए ।" इत्यादि ॥ इसके आगे प्रति के यावद्वाच्य आद्यन्त अंशों को उद्धृत
किया गया है । अन्तिम पुष्पिका इस प्रकार
;
!
*
1
.
.
"
चण्
संवत् १६७५ वर्षे ज्येष्ठ सुदी ११ तिथी सूर्यवारे । श्री श्री श्री सागरचन्द्र-
"
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से हुआ था ! इस राव मण्डलीक को पराजित करके गुजरात के सुलतान महमूद वेगड़ा ने
मुसलमान बना लिया था । कोई कहते हैं कि पहले ही अनबन हो जाने के कारण रमाबाई
पीहर में श्रा कर रहने लगी थी और कुछ लोगों का मत है कि राव के मुसलमान हो जाने के
बाद वह य
रमाकुण्ड का निर्माण कराया था जिसका शिलालेख पास
में लगा हुआ है ।
इसके अतिरिक्त '
वि० स० ) की चार में से एक पत्नी का नाम '
है । इससे ज्ञात होता है कि महाराणा कुंम्भा और
सम्बन्ध था । यद्यपि कुम्भलगढ़ की प्रशस्ति में 'आम्रदाद्रिदलन' विरुद का उल्लेख है, परन्तु
साथ ही इससे यह भी मालूम होता है कि उस समय ऐसा रिवाज था कि प्रबल राजपूत शासक
अपने आसपास के इलाकों पर चढ़ाइयाँ करते थे और थोड़ी बहुत लड़ाई होने के बाद उनमें
आपस में लड़
होगा ।