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[ २६ ]
रसरत्नकोश की पुष्पिका में सङ्गीतराज की समाप्ति का संवत् १५०६ वि०
और शक १३७४ दिया है -
श्रीमद्विक्रमकालतः परिगते नन्दा प्रभूतक्षितो
वर्षेऽक्षांद्रयनलेन्दुशाक समये संवत्सरे च ध्रुवे ।
ऊर्जे मासि तिथो हरे रविदिने हस्तक्षंयोगे तथा
योगे चाभिजिति स्फुटोऽयमभवत् सङ्गीतराजाभिधः ॥१५॥
इसी के आगे १७ वें श्लोक में लिखा है-
चण्डीशश (त) व्याकरणेन गीतगोविन्दवृत्त्या सुकृतं यदत्र ।
सङ्गीतराजेन च तेन चण्डी हरिर्हरः प्रीतिमवाप्नुवन्तु ॥१७॥१
इससे ज्ञात होता है कि चण्डीशतक की वृत्ति की रचना वि. सं. १५०६ से
भी पूर्व हो चुकी थी । यद्यपि कीर्तिस्तम्भ के प्रशस्ति-लेखन का संवत् १५१५ है
किन्तु स्तम्भ का निर्माण संवत् १५०५ में ही समाप्त हो चुका था और उसी
समय प्रशस्ति-रचना का श्रारम्भ हो गया होगा । प्रशस्तिकार अत्रि का बीच में
ही देहान्त हो गया और उसके पुत्र महेश कवि ने उत्तरार्द्ध की रचना करके
इसको पूर्ण किया। फिर भी, प्रशस्ति में उल्लेख्य विषयों का पूर्वरूप पहले ही
स्थिर कर लिया होगा और यह सम्भव है कि चण्डीशतक की वृत्ति सं० १५०५
से भी पहले रची गई हो ।
महाराणा कुम्भकर्ण की सामरिक, राजनीतिक और साहित्यिक उपलब्धियों
के विषय में समसामयिक इमारतें और शिलालेखादि प्राप्त है, यह सौभाग्य की
बात है । इन विषयों पर संशोधक विद्वानों ने समय-समय पर पर्याप्त प्रकाश
भी डाला है; उन्हीं बातों को दोहराना यहाँ संगत नहीं होगा
१. Central Library, Baroda Ms. No. 1133, p. 66 b
२. पुण्ये पञ्चदशे शते व्यपगते पञ्चाधिके वत्सरे
माघे मासि वलक्षपक्षदशमीदेवेज्यपुष्पागमे ।
कीर्तिस्तम्भमकारयन्नरपतिः श्रीचित्रकूटाचले
नानानिमित निर्जरावत र मेरोहंसन्तं श्रियम् ॥ १८५॥
३. महाराणा के पारिवारिक जीवन की चर्चा का यहां पर स्पर्श नहीं किया गया है, मुख्यतः
उसको सन्तति का । म. म. गौरीशंकरजी श्रोभा ने भाटों को ख्यातों के आधार पर कुम्भकर्ण
ग्यारह पुत्रों के नाम उदयसिंह, रायमल, नगराज, गोपालसिंह, ग्रासकरण, अमरसिंह,
गोविंददास, जैतसिंह, महरावरण, क्षेत्रसिंह और अचलदास लिखे हैं। इनके अतिरिक्त उसको
एकमात्र पुत्री रमाबाई का भी उल्लेख है, जिसका विवाह जूनागढ़ के अन्तिम राव मण्डलीक
,
रसरत्नकोश की पुष्पिका में सङ्गीतराज की समाप्ति का संवत् १५०६ वि०
और शक १३७४ दिया है -
श्रीमद्विक्रमकालतः परिगते नन्दा प्रभूतक्षितो
वर्षेऽक्षांद्रयनलेन्दुशाक समये संवत्सरे च ध्रुवे ।
ऊर्जे मासि तिथो हरे रविदिने हस्तक्षंयोगे तथा
योगे चाभिजिति स्फुटोऽयमभवत् सङ्गीतराजाभिधः ॥१५॥
इसी के आगे १७ वें श्लोक में लिखा है-
चण्डीशश (त) व्याकरणेन गीतगोविन्दवृत्त्या सुकृतं यदत्र ।
सङ्गीतराजेन च तेन चण्डी हरिर्हरः प्रीतिमवाप्नुवन्तु ॥१७॥१
इससे ज्ञात होता है कि चण्डीशतक की वृत्ति की रचना वि. सं. १५०६ से
भी पूर्व हो चुकी थी । यद्यपि कीर्तिस्तम्भ के प्रशस्ति-लेखन का संवत् १५१५ है
किन्तु स्तम्भ का निर्माण संवत् १५०५ में ही समाप्त हो चुका था और उसी
समय प्रशस्ति-रचना का श्रारम्भ हो गया होगा । प्रशस्तिकार अत्रि का बीच में
ही देहान्त हो गया और उसके पुत्र महेश कवि ने उत्तरार्द्ध की रचना करके
इसको पूर्ण किया। फिर भी, प्रशस्ति में उल्लेख्य विषयों का पूर्वरूप पहले ही
स्थिर कर लिया होगा और यह सम्भव है कि चण्डीशतक की वृत्ति सं० १५०५
से भी पहले रची गई हो ।
महाराणा कुम्भकर्ण की सामरिक, राजनीतिक और साहित्यिक उपलब्धियों
के विषय में समसामयिक इमारतें और शिलालेखादि प्राप्त है, यह सौभाग्य की
बात है । इन विषयों पर संशोधक विद्वानों ने समय-समय पर पर्याप्त प्रकाश
भी डाला है; उन्हीं बातों को दोहराना यहाँ संगत नहीं होगा
१. Central Library, Baroda Ms. No. 1133, p. 66 b
२. पुण्ये पञ्चदशे शते व्यपगते पञ्चाधिके वत्सरे
माघे मासि वलक्षपक्षदशमीदेवेज्यपुष्पागमे ।
कीर्तिस्तम्भमकारयन्नरपतिः श्रीचित्रकूटाचले
नानानिमित निर्जरावत र मेरोहंसन्तं श्रियम् ॥ १८५॥
३. महाराणा के पारिवारिक जीवन की चर्चा का यहां पर स्पर्श नहीं किया गया है, मुख्यतः
उसको सन्तति का । म. म. गौरीशंकरजी श्रोभा ने भाटों को ख्यातों के आधार पर कुम्भकर्ण
ग्यारह पुत्रों के नाम उदयसिंह, रायमल, नगराज, गोपालसिंह, ग्रासकरण, अमरसिंह,
गोविंददास, जैतसिंह, महरावरण, क्षेत्रसिंह और अचलदास लिखे हैं। इनके अतिरिक्त उसको
एकमात्र पुत्री रमाबाई का भी उल्लेख है, जिसका विवाह जूनागढ़ के अन्तिम राव मण्डलीक
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