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उपोद्घात में भी पीटरसन महोदय ने इन यावदुक्त टीका
है और न्यूयार्क से प्रकाशित (कोलम्बिया विश्वविद्यालय को इण्डो-ईरानियन
ग्रंथमाला) संस्करण में भी जी. पी. क्वेकनबोस महाशय ने भी अपना अंग्रेजी
अनुवाद प्रस्तुत करते हुए किसी
एडवर्ड हॉल ने वासवदत्ता के उपोद्घात में भी एक टिप्प
है । जी. बुह्लर को बम्बई सरकार के लिए जो पाण्डुलिपि प्राप्त हुई उसमें
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लिखी हुई है ।
महाराणा कुम्भकर्ण
चित्तौड़ के कीर्तिस्तम्भ के शिलालेख में हुआ है, जिसको तिथि मंगसिर बदि ५,
संवत् १५१७ वि० है । सम्बद्ध श्लोक इस प्रकार है-
श्रा
आलोड्याखिलभारतीविलसितं सङ्गीतराजं व्यधात्
श्रौढ
औद्धत्यावधिरञ्जसा समतनोत् सूडप्रबन्धाधिपम् ।
नानालङ्कृतिसंस्कृता व्यरचयच्चण्डीशतव्याकृ
बा
वागीशी जगतीतलं कलयति श्रीकुम्भदम्भात् किल ॥ १५७॥
येनाकारि मुरारिसंगतिरसप्रस्यन्दिनी नन्दिनी,
वृत्तिव्याकृतिचातुरीभिरतुला श्रीगीतगोविन्द
श्रीकर्णाटक-मेदपाट-सुमहाराष्ट्रादिके योदय-
द्वा
इसके पश्चात् कीलहार्न ने भी मध्यप्रान्त की पाण्डुलिपियों की सूची[^३] में
इस वृत्ति का उल्लेख किया है; परन्तु, कहीं पर सुस्पष्ट प्रति प्राप्त होकर इसके
प्रकाशन की सूचना अभी तक उपलब्ध नहीं है, न अन्य प्रतियों का ही विवरण
देखने में आया है । महाराणा कुम्भा का समय विक्रम संवत् १४९० से १५५२
तक का है और संवत् १५१७ को प्रशस्ति में इस वृत्ति का उल्लेख है इसलिए
निस्सन्देह इसकी रचना उक्त संवत् से पूर्व हो चुकी थी। किन्तु, संगीतराजान्तर्गत
.
१.
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[^१] इण्डियन एण्टीक्वेरी, जिल्द १, पृ. १११-११३
[^२
पत्र ३६ a ।
[^३
Nagpur, 1884 A. D.