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के विषय में प्रसिद्धि है कि वह बाण को मयूर की अपेक्षा स्वल्प प्रयास से ही
सुलभ हो जाती थी ।
 
किंवदन्ती है कि जब मयूर ने सूर्यशतक का छठा श्लोक पढ़ा तब भुवन-
भास्कर ने प्रकट होकर उसे अपनी एक किरण से ढँक लिया और रोग- मुक्त
कर दिया, परन्तु बाण ने जब उससे स्पर्धा करके अपने अंगों को विक्षत कर
लिया और फिर चण्डिका का स्तवन आरम्भ किया तो प्रथम श्लोक का छठा
वर्ण कहते-कहते ही देवी ने प्रकट होकर उसके अवयवों को प्रकृतिस्थ कर
दिया। प्रथम पद्य में 'प्रकृतिमवयवान् प्रापयन्त्या' पद में इस ओर संकेत भी
किया गया माना जाता है ।[^१]
 
यों तो कहा गया है कि कोई अक्षर ऐसा नहीं है जो मन्त्र न हो, फिर भी
कुछ बीजाक्षर ऐसे हैं जिनका प्रयोग सद्यःप्रभावकारी होता है। संस्कृत के
अनेक स्तोत्रकारों ने अपनी रचनाओं में ऐसे बीजाक्षरों का गूढरीत्या गुम्फन
किया है। प्रस्तुत स्तोत्र में भी प्रथम पद्य में आं ह्रीं क्रों प्राण-बीजमन्त्र गर्भित
है, जिसके उद्धार का विवरण वृत्ति में (पृ. १०) द्रष्टव्य है ।
 
चण्डीशतक के वृत्तिकार मेदपाटेश्वर महाराणा कुम्भकर्ण ने यद्यपि
लिखा है-
 
'सत्यं चण्डीशते काव्ये टीकाः सन्ति परःशताः'
 
परन्तु, वस्तुस्थिति किसी और ही रूप में सामने आई है। ऑफ्रेट ने इस
शतक पर केवल दो ही टोकाओं का उल्लेख किया है, एक धनेश्वर की ओर
दूसरी अज्ञात-कृता । कृष्णमाचारी ने भी सोमेश्वर-सुत धनेश्वर, नागोजी भट्ट,
भास्कररायकृत टीकाओं के साथ दो अन्य अज्ञात-कर्तृक टीकाओं का ही
हवाला दिया है;[^२] परन्तु वास्तव में ये दोनों टीकाएं बाणकृत 'चण्डीशतक'
की नहीं हैं । काव्यमाला के चतुर्थ गुच्छक में प्रकाशित चण्डीशतक के
सम्पादक एवं टिप्पणकारद्वय ने भी इतना ही लिखा है 'अस्य शतकस्य सोमेश्वर-
सुनुधनेश्वरप्रणीतैका, कर्तृनामरहिता चापरा, एवं टीकाद्वयमुपलब्धमस्माभिः,
किन्तु टीकाद्वयमप्यतीव तुच्छं वृथा समासादिभि: पल्लवितमस्ति । अस्मल्लब्धं
तत्पुस्तकद्वयं चातीवाशुद्धं मध्ये मध्ये त्रुटितं चेति सम्पूर्णटीकामुद्रणमुपेक्ष्य
 
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[^१] इण्डियन एण्टीक्वेरी, भा. १ (१८७२) में जी. बुहलर का लेख; पु. १११
[^२] Peterson's Report on the operations in search of Sanskrit manu-
scripts in the Bombay Circle (I to IV)