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शिव की उक्ति जया की उक्ति पद्याड़्क १२
" " पार्वती के प्रति " १४, ३०, ८८
जया की उक्ति पार्वती के प्रति " ८९
" " देव-पत्नियों के प्रति " ३३
" " देवताओं के प्रति " १४, ३८, ६९, ८६
" " शिव के प्रति " ३२
विजया की उक्ति देवताओं के प्रति " १
कुमार की उक्ति गणेश के प्रति " ६७
देवताओं की उक्ति देवी के प्रति " ७०
दैत्य (महिष) की उक्ति देवों के प्रति " २३, ३४, ५७, ६५, ८०
" " देवी के प्रति " २७, ७६, ७७, ८१, ८२
८३, ८५, १००
" " कुमार के प्रति " २८
" " शिव के प्रति " ६२, ९१
" " प्रमथगण के प्रति " ३५
" " स्वोक्ति " ५२
शेष पद्यों में कवि ने पार्वती, उमा, भद्रकाली, कात्यायनी, गौरी, देवी,
आर्या, शर्वाणी, रुद्राणी, अद्रिकन्या आदि नामों से विविध मुद्राओं में स्वयं
देवी अथवा उसके वाम चरण को, बाण या कुमार द्वारा पाठकों का मङ्गल
करने, उनको पवित्र करने तथा उनके दुरितों का नाश करने की कल्याण-
कामना की है ।
शतक के सभी पद्य स्रग्धरा वृत्त में निर्मित हैं, केवल छः पद्य ( २५, ३२,
४९, ५५, ५६ श्रीर ७२ वाँ) शार्दूलविक्रीडित में हैं। इस परिवर्तन का कोई
स्पष्ट कारण समझ में नहीं आता । ऐसा लगता है कि पहले से इसके लिए
कोई आयोजना सङ्कल्पित नहीं थी; समय-समय पर जब जैसा पद्य बना वही
शतक में संकलित कर लिया गया । यह भी सम्भव है कि पहले कवि ने सप्त-
तिका[^१] ही रच कर विराम कर दिया हो और बाद में जब कुछ और पद्य रचे
गए तो उन्हें मिला कर मयूर की स्पर्धा में शतक-संज्ञा दी गई हो । वैसे, सिद्धि
[^१] A Catalogue of South Indian Sanskrit Manuscripts (especially those
of the Whish collection ) in the Royal Asiatic Society, London,
Compiled by M. Winternitz, 1902.
" " पार्वती के प्रति " १४, ३०, ८८
जया की उक्ति पार्वती के प्रति " ८९
" " देव-पत्नियों के प्रति " ३३
" " देवताओं के प्रति " १४, ३८, ६९, ८६
" " शिव के प्रति " ३२
विजया की उक्ति देवताओं के प्रति " १
कुमार की उक्ति गणेश के प्रति " ६७
देवताओं की उक्ति देवी के प्रति " ७०
दैत्य (महिष) की उक्ति देवों के प्रति " २३, ३४, ५७, ६५, ८०
" " देवी के प्रति " २७, ७६, ७७, ८१, ८२
८३, ८५, १००
" " कुमार के प्रति " २८
" " शिव के प्रति " ६२, ९१
" " प्रमथगण के प्रति " ३५
" " स्वोक्ति " ५२
शेष पद्यों में कवि ने पार्वती, उमा, भद्रकाली, कात्यायनी, गौरी, देवी,
आर्या, शर्वाणी, रुद्राणी, अद्रिकन्या आदि नामों से विविध मुद्राओं में स्वयं
देवी अथवा उसके वाम चरण को, बाण या कुमार द्वारा पाठकों का मङ्गल
करने, उनको पवित्र करने तथा उनके दुरितों का नाश करने की कल्याण-
कामना की है ।
शतक के सभी पद्य स्रग्धरा वृत्त में निर्मित हैं, केवल छः पद्य ( २५, ३२,
४९, ५५, ५६ श्रीर ७२ वाँ) शार्दूलविक्रीडित में हैं। इस परिवर्तन का कोई
स्पष्ट कारण समझ में नहीं आता । ऐसा लगता है कि पहले से इसके लिए
कोई आयोजना सङ्कल्पित नहीं थी; समय-समय पर जब जैसा पद्य बना वही
शतक में संकलित कर लिया गया । यह भी सम्भव है कि पहले कवि ने सप्त-
तिका[^१] ही रच कर विराम कर दिया हो और बाद में जब कुछ और पद्य रचे
गए तो उन्हें मिला कर मयूर की स्पर्धा में शतक-संज्ञा दी गई हो । वैसे, सिद्धि
[^१] A Catalogue of South Indian Sanskrit Manuscripts (especially those
of the Whish collection ) in the Royal Asiatic Society, London,
Compiled by M. Winternitz, 1902.