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[ २२ ].
 
दण्ड । जब ये सब विफल हो गए तो महिष-वध में चण्डिका का चरण पंचम
उपाय के समान कृतकार्य हुआ । यही बात शब्दच्छल से एक पद्य में कही गई
है। ब्रह्मा के द्वारा 'साम-प्रयोग' (सामवेद के आशीर्वाक्यों) से उस शत्रु का
समाधान नहीं हुआ, हरि (विष्णु) का सुदर्शन चक्र भी उसका 'भेद' ( छेद ) नहीं
कर सका, इन्द्र को अपने पर सवार किए हुए ऐरावत हाथी को 'दानवृष्टि'
(मदभरण) से भी वह केवल कलुषित (क्रुद्ध ) ही हुआ और यमराज के 'दण्ड' से
भी जो वश में नहीं हुआ, ऐसे उस शत्रु का नाश करने में सफल पंचम उपाय
के समान देवी का चरण आपके पापों का नाश करे ।
 
जब महिष के प्राण निकल गए और वह पृथ्वी पर लोट गया तब देवी ने
उच्च हास किया; उस समय उनके दाँतों की शुभ्र कान्ति से अवसर ही महिष का
विशाल मृत शरीर कैलाश के समान सफेद दिखाई पड़ने लगा जिससे बहुतों को
भ्रम हुआ; उसकी ऊँची शृङ्गाग्रभूमि (सींगों की नोकों) पर देवगणों ने गिरिशृङ्ग
समझ कर आश्रय ग्रहण किया; जल्दी से दिशाओं के हाथी उसके कानों की
गुफाओं को कुंज समझ कर उनमें घुसने लगे; और तो और स्वयं शिवजी भी
उसको कैलास ही समझ कर उसकी पीठ पर चढ़ गए। यह सब देख कर
मुस्कराती हुई देवी प्रापकी रक्षा करे।
 

 
इस प्रकार चण्डीशतक में कुल १०२ पद्य हैं जिनको उक्ति वैविध्य के
आधार पर इस प्रकार विभाजित किया जा सकता है-
देवी की उक्ति
 
स्वयं के प्रति
 
पद्याङ्क
 
जया के प्रति
 
देवताओं के प्रति
 
}}
 
13
 
.
 
शिव के प्रति
 
21
 

 
१६
 
२४, २६, ५६, ६०
३१, ४८, ६१
 
साम्ना नाम्नाययोने तिमकृत हरेनपि चक्रेण भेदात्
सेन्द्रस्यं रावणस्याप्युपरि कलुषितः केवलं दानवृष्टया ।
दान्तो दण्डेन मृत्योनं च विफलयथोक्ताभ्युपायो हतारि-
येनोपाय: स पादो नंदतु भवदघं पञ्चमश्चण्डिकायाः ॥४६ ॥
तुङ्गां शृङ्गाग्रभूमिश्रितवति मरुतां प्रोतका निकाये.
कुञ्जौत्सुक्याविशत्सु श्रुतिकुहरपुटं द्राक्ककुकुञ्जरेषु ।
स्मित्वा वः संहृतासोर्देशन रुचिकृताऽकाण्डकैलासभासः
प/यात् पृष्ठाधिरूढे स्मरमुषि महिषस्योच्चहासेव देवी ॥५०॥
कुम्भकर्णंकृतवृत्ति वाली रा. प्रा. प्र. की प्रति में केवल १०१ हो इलोक हैं ।