2023-03-02 18:15:16 by manu_css
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इस पद्य में शरवर्षा करती हुई चण्डी के सहज स्वाभाविक वर्णन के साथ-
साथ स्त्रियों द्वारा कंचुक और वलय धारण करने के रिवाज की भी सूचना
मिलती है ।
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एक स्थल पर महिष देवी के प्रति व्यङ्ग्य करता है
पुत्र का
है । शङ्कर का पुत्र कार्तिकेय तो अभी बच्चा है; मिट्टी में खेलने योग्य है, वह
युद्ध में भाग लेना क्या जाने ? स्वयं शिवजी के शिर में गर्मी चढ़ी हुई है इसलिए
चन्द्रमा को माथे पर
शरीर पर राख मलते रहते हैं; अब रह गया हाथी के मुंह वाला गणेश, सो
उसका दाँत पहले ही टूट चुका है, फिर वह मोटे शरीर से विह्वल है अथवा एक
दाँत कर-स्वरूप देकर दुःखी हो गया है, इसलिए अ
है । तुम्हें धिक्कार है, अब कहाँ जाती हो ?
कर देवी के प्रति लगने वाले वचन कहने वाले महिषरूपधारी दुष्ट दैत्य का
बाएं पैर की ठोकर से वध करती हुई पार्वती आपकी रक्षा करे ।
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मघवा (
शत्रु महिष को तुरन्त ही मृत्युरूपी लम्बी नींद में सुला देने के बाद, जब (
उत्पन्न होने वाला
करती हुई (स्वस्थता को प्राप्त होती हुई) देवी के तोनों नेत्रों में से क्रोध की
लाली तीन रक्त
वह रक्तता बाहर आ गई
गुफाओं जैसे घावों में से निकले हुए रक्त से भरे समुद्र और भी लाल हो गए ।
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२.
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[^१] चक्षुर्दिक्षु क्षिपन्त्याश्चलितकमलिनीचारुकोशाभिताम्
मन्द्रध्वानानुयातं
चण्ड्याः सव्यापसव्यं सुररिपुषु शरान् प्
त्रुट्यन्तः पीनभागे स्तनचलनभरात् सन्धयः कञ्चुकस्य ॥७०॥
[^२] बालोऽद्यापीशजन्मा समरमुड्डपभृत् भस्मलीलाविलासी
नागास्यः शातदन्तः स्वतनुक
धिग्यासि क्वेति दृप्तं मृदिततनुमदं दानवं संस्फुरोक्तं
पायाद्वः शैलपुत्री महिषतनुभृतं निघ्नती वामपा