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[ १८ ]
कहता तो वह उसे कान लगा कर सुनती जैसे अपने प्रिय के प्रशंसापूर्ण नर्म-
वचनों को श्रोत्र-पुटों से पी जाती थी, या प्रिय के द्वारा श्रोत्र-पुटों से पीने योग्य
वचन कहती थी । इस प्रकार जैसे शिव के प्रति नर्मकर्म में उद्यत होती थी वैसे
ही महिष के प्रति रणकर्म में उद्युक्त होने वाली पार्वती
१
की रक्षा करें । '
.
इस पद्य में रिलष्ट पदों द्वारा रणकर्मोचित और नर्मकर्मोचित परस्पर
विरुद्ध-रसात्मक चेष्टाओं के युगपद् वर्णन का चमत्कार है । यह सुश्लेष- सन्नि-
वेशपटु बाण का ही सामर्थ्य है । श्रमरुकशतक के टीकाकार अर्जुनवर्मदेव ने
भी इस पद्य को उद्धृत किया है, जिसमें उसने चण्डीशतक के कर्ता के रूप में
बाणभट्ट को स्पष्ट स्वीकार किया है ।
महिष-वध के अनन्तर उपद्रव शान्त हो जाने पर जब शिव और पार्वती
उस घटना की बातें करने लगे तो देवी (पार्वती) ने शम्भु का इस प्रकार परिहास
किया - 'महिष के कठोरं शृङ्गों से मेरु पर्वत का शरीर क्षत-विक्षत हो गया,
इस पर मुझे क्रोध नहीं प्राया; नदियों के स्वामी ( समुद्र ) रीते हो गए, यह भी
अच्छा ही हुआ क्योंकि इससे कोई निःसपत्न हो गया, ( नदी होने के कारण
गङ्गा समुद्र की भी पत्नी है और शङ्कर भी उसे पत्नी बना कर सिर चढ़ाए हुए
हैं, अब रीते हो जाने के कारण समुद्रों के न रहने पर कोई (शिव) निस्सपत्न
हो गया, अच्छा हुआ); परन्तु, मुझे यह सहन नहीं हुआ कि हमारे शिवजी
महाराज जिसको माथे पर धारण करने योग्य मानते हैं वह गङ्गा महिष के
$
दृष्टावासक्तदृष्टिः प्रथममिव तथा सम्मुखीनाऽभिमुख्ये
स्मेरा हासप्रगल्भे प्रियवचसि कृतश्रोत्रपेयाधिकोक्तिः ।
उद्यक्ता नर्मकर्मण्यवतु पशुपती पूर्ववत् पार्वती वः
कुर्वारणा सर्वमीषद् विनिहितचरणालक्तकेव क्षतारिः ॥३७॥
-
२. टीकाकार ने लिखा है – 'उपनिबद्ध' च भट्टबारणेनैवविध एव सङ्ग्राम प्रस्तावे देव्यास्त -
तद्भङ्गिभिभंगवता भर्गेण सह प्रीतिप्रतिपादनाय बहुधा नर्म यथा दृष्टावसक्त-
दृष्टिरिति ।
अमरुकशतक का यह श्लोक भी यहाँ द्रष्टव्य है-
क्षिप्तो हस्तावलग्नः प्रसभमभिहतोऽप्याददानोंऽशुकातं
गृह्णन् केशेष्वपास्तचरणनिपतितो नेक्षितः सम्भ्रमेण ।
आलिङ्गन् योऽवधुत स्त्रिपुरयुवतिभिः साधनेोत्पलाभिः
कामीवार्द्रापिराधः स दहतु दुरितं शाम्भवो वः शराग्निः ॥ २॥
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कहता तो वह उसे कान लगा कर सुनती जैसे अपने प्रिय के प्रशंसापूर्ण नर्म-
वचनों को श्रोत्र-पुटों से पी जाती थी, या प्रिय के द्वारा श्रोत्र-पुटों से पीने योग्य
वचन कहती थी । इस प्रकार जैसे शिव के प्रति नर्मकर्म में उद्यत होती थी वैसे
ही महिष के प्रति रणकर्म में उद्युक्त होने वाली पार्वती
१
की रक्षा करें । '
.
इस पद्य में रिलष्ट पदों द्वारा रणकर्मोचित और नर्मकर्मोचित परस्पर
विरुद्ध-रसात्मक चेष्टाओं के युगपद् वर्णन का चमत्कार है । यह सुश्लेष- सन्नि-
वेशपटु बाण का ही सामर्थ्य है । श्रमरुकशतक के टीकाकार अर्जुनवर्मदेव ने
भी इस पद्य को उद्धृत किया है, जिसमें उसने चण्डीशतक के कर्ता के रूप में
बाणभट्ट को स्पष्ट स्वीकार किया है ।
महिष-वध के अनन्तर उपद्रव शान्त हो जाने पर जब शिव और पार्वती
उस घटना की बातें करने लगे तो देवी (पार्वती) ने शम्भु का इस प्रकार परिहास
किया - 'महिष के कठोरं शृङ्गों से मेरु पर्वत का शरीर क्षत-विक्षत हो गया,
इस पर मुझे क्रोध नहीं प्राया; नदियों के स्वामी ( समुद्र ) रीते हो गए, यह भी
अच्छा ही हुआ क्योंकि इससे कोई निःसपत्न हो गया, ( नदी होने के कारण
गङ्गा समुद्र की भी पत्नी है और शङ्कर भी उसे पत्नी बना कर सिर चढ़ाए हुए
हैं, अब रीते हो जाने के कारण समुद्रों के न रहने पर कोई (शिव) निस्सपत्न
हो गया, अच्छा हुआ); परन्तु, मुझे यह सहन नहीं हुआ कि हमारे शिवजी
महाराज जिसको माथे पर धारण करने योग्य मानते हैं वह गङ्गा महिष के
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दृष्टावासक्तदृष्टिः प्रथममिव तथा सम्मुखीनाऽभिमुख्ये
स्मेरा हासप्रगल्भे प्रियवचसि कृतश्रोत्रपेयाधिकोक्तिः ।
उद्यक्ता नर्मकर्मण्यवतु पशुपती पूर्ववत् पार्वती वः
कुर्वारणा सर्वमीषद् विनिहितचरणालक्तकेव क्षतारिः ॥३७॥
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२. टीकाकार ने लिखा है – 'उपनिबद्ध' च भट्टबारणेनैवविध एव सङ्ग्राम प्रस्तावे देव्यास्त -
तद्भङ्गिभिभंगवता भर्गेण सह प्रीतिप्रतिपादनाय बहुधा नर्म यथा दृष्टावसक्त-
दृष्टिरिति ।
अमरुकशतक का यह श्लोक भी यहाँ द्रष्टव्य है-
क्षिप्तो हस्तावलग्नः प्रसभमभिहतोऽप्याददानोंऽशुकातं
गृह्णन् केशेष्वपास्तचरणनिपतितो नेक्षितः सम्भ्रमेण ।
आलिङ्गन् योऽवधुत स्त्रिपुरयुवतिभिः साधनेोत्पलाभिः
कामीवार्द्रापिराधः स दहतु दुरितं शाम्भवो वः शराग्निः ॥ २॥
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