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प्रधान सम्पादकीय वक्तव्य
 
प्रतिष्ठान के भूतपूर्व उपनिदेशक श्री गोपालनारायण बहुरा द्वारा सम्पादित
चण्डीशतक के इस संस्करण की सर्वाधिक विशेषता यह है कि इसमें वाण-कृत
चण्डीशतंक की दो अप्रकाशित टीकाएं भी प्रकाशित की जा रही हैं । इन
टीकाओं में से एक तो किसी अज्ञात टीकाकार को कृति है और दूसरी के कर्ता
इतिहास प्रसिद्ध तथा संगीतराज नामक महाग्रंथ के यशस्वी लेखक महाराणा
कुंभा हैं। महाराणा कुम्भा की टीका पाण्डित्यपूर्ण टीकाओं में एक विशिष्ट
स्थान प्राप्त करती है। उन्होंने प्रत्येक विषय को जिस सूक्ष्म और पैनी दृष्टि
से देखा है वह अन्यत्र बहुत कम ही प्राप्त होगी । इस टीका को एक आदर्श
टीका मान कर यदि इसका विविध दृष्टिकोणों से अध्ययन प्रस्तुत किया जा
सके तो शोध-छात्रों के लिये बहुत उपादेय हो सकता है ।
 
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विद्वान् सम्पादक ने चण्डीशतक के लेखक वाणभट्ट और उनके टीकाकार
महाराणा कुंभा पर अत्यन्त विद्वत्तापूर्ण विचार व्यक्त किये हैं। उन्होंने अपने गुरु
कल्प मित्र पं० मोतीलाल शास्त्री के विचारों पर आधारित चण्डीशतक के मूल देवी-
तत्त्व पर भी एक दार्शनिक व्याख्या को सुबोध शैली में प्रस्तुत किया है । उन्होंने
एक और महत्त्वपूर्ण तथ्य की ओर संकेत किया है, महाराणा कुम्भा की रचित
टीका की प्रति का जिस प्रति के आधार पर सम्पादन किया गया है उसको एक
प्रसिद्ध जैन साधु श्रीवल्लभोपाध्याय ने स्वयं अपने हाथ से तैयार किया था ।
यह जैन साधु स्वयं बड़े यशस्वी लेखक प्रोर विद्याप्रेमी थे जिनके विषय में
हमारे प्रतिष्ठान के ही महोपाध्याय विनयसागर ने 'अरजिनस्तव' का सम्पादन
करते
हुए अपनी भूमिका में विस्तार के साथ लिखा है ।
 
श्री गोपालनारायण बहुरा के सुन्दर सम्पादन के लिये में प्रतिष्ठान की
प्रोर से हार्दिक धन्यवाद अर्पित करता हूँ और आशा करता हूँ कि वे प्रतिष्ठान
' के शोधकार्य में पूर्ववत् सहायता करते रहेंगे ।
 
माघ शुक्ला प्रष्टमी, सं. २०२४.
 
जोधपुर..
 
फतह सिंह