2023-03-13 19:48:54 by manu_css
This page has been fully proofread once and needs a second look.
बाण: पद्यबन्धे न तादृशः' । यद्यपि इसके पाठान्तर 'पद्यबन्धेऽपि तादृशः' का
पूर्ण समर्थन तो नहीं किया जा सकता, परन्तु जिन में सहजात प्रतिभा होती है
वह प्रत्येक अवस्था में विस्फुरित हो ही जाती है । यह सत्य है कि कवियों की
कसौटी, अलङ्कृत-गद्य-लेखन में बाण खरा सोना प्रमाणित हुए हैं तो
पद्यरचना में भी उनकी प्रतिभा-प्रभा सर्वथा पिहित नहीं हो गई है। यह बात
दूसरी है कि कादम्बरी उनकी प्रौढतम और अन्तिम रचना है, उसका-सा सौष्ठव
अन्य किसी रचना में नहीं आ पाया है; संयोग की बात है । चण्डीशतक बाण
की प्रारम्भिक रचना ज्ञात होती है। और, यदि मयूर कवि वाली किम्वदन्ती में
सचाई है तो इस धारणा को और भी बल मिल जाता है । परन्तु, फिर भी
बाण में कवित्व के जो गुण बीजरूप से विद्यमान थे वे इस रचना में भी
प्रस्फुटित हुए विना नहीं रहे हैं--भले ही उनके पूर्ण पल्लवित और
पुष्पित होने के परिणाम कादम्बरी में दृष्टिगत हुए हों ।
चण्डीशतक में एक ही बात सौ तरह से सौ बार कही गई है, फिर भी
प्रत्येक पद्य में कल्पना, श्लेष और सन्दर्भ की वह नवीनता पाई जाती है, जो उस में
टटकापन ला देती है। यद्यपि प्रत्येक पद्य अपने में स्वतन्त्र है फिर भी पूरे
शतक को पढ़ जाने पर लगता है कि मूल कथा का कोई प्रसंग छूट नहीं पाया है;
यह अवश्य है कि पद्यों की क्रम-व्यवस्था घटनाक्रम के पूर्वापर से मेल नहीं खाती
है । कहीं-कहीं सन्दर्भ इतने गूढ़ हैं कि तत्काल उनका सूत्रानुसन्धान नहीं किया
जा सकता । बाण को लम्बे-लम्बे समस्त पदों वाली श्लेषघना शैली प्रिय रही
है । पहली बात का छन्द में निर्वाह होना कठिन है । कोई-कोई पद्य तो ऐसा
श्लेषाश्लिष्ट है कि उसकी दो बार व्याख्या किए बिना अर्थ ही स्पष्ट नहीं
होता। इस रचना में उक्तिवैचित्र्य ही कवि का मुख्य लक्ष्य ज्ञात होता है;
श्लिष्ट और सन्दर्भित पदों का प्रयोग उसकी शैली से अभिन्न है, अन्य अलंकार
जहां कहीं दृष्टिगत होते हैं, वे स्वतः आ गए हैं, उनके लिए कोई प्रयास नहीं
करना पड़ा है । उपमानों और उत्प्रेक्षाओं का आधार प्रायः पौराणिक कथाएं
ही हैं, परन्तु प्रकृति का सहज प्रेमी कवि, जहां भी अवसर मिला है वहां, उसका
चेतोहर चित्रण किए बिना नहीं रहा है। औचित्य का निर्वाह करते हुए
यथावसर शृंगार-वर्णन तो किया ही गया है, परन्तु प्रशान्त वीर के साथ-साथ
अन्य रसों का भी यत्र-तत्र समावेश हुआ है । गुप्तकालीन स्त्रियों की वेशभूषा,
आभूषण और कतिपय सामाजिक रीतियों का भी दिग्दर्शन स्वतः हो गया है ।
उदाहरण के रूप में पाठकों के विनोदार्थ कतिपय पद्यों के भावार्थ का उद्धरण
यहां पर अनवसर नहीं होगा--
पूर्ण समर्थन तो नहीं किया जा सकता, परन्तु जिन में सहजात प्रतिभा होती है
वह प्रत्येक अवस्था में विस्फुरित हो ही जाती है । यह सत्य है कि कवियों की
कसौटी, अलङ्कृत-गद्य-लेखन में बाण खरा सोना प्रमाणित हुए हैं तो
पद्यरचना में भी उनकी प्रतिभा-प्रभा सर्वथा पिहित नहीं हो गई है। यह बात
दूसरी है कि कादम्बरी उनकी प्रौढतम और अन्तिम रचना है, उसका-सा सौष्ठव
अन्य किसी रचना में नहीं आ पाया है; संयोग की बात है । चण्डीशतक बाण
की प्रारम्भिक रचना ज्ञात होती है। और, यदि मयूर कवि वाली किम्वदन्ती में
सचाई है तो इस धारणा को और भी बल मिल जाता है । परन्तु, फिर भी
बाण में कवित्व के जो गुण बीजरूप से विद्यमान थे वे इस रचना में भी
प्रस्फुटित हुए विना नहीं रहे हैं--भले ही उनके पूर्ण पल्लवित और
पुष्पित होने के परिणाम कादम्बरी में दृष्टिगत हुए हों ।
चण्डीशतक में एक ही बात सौ तरह से सौ बार कही गई है, फिर भी
प्रत्येक पद्य में कल्पना, श्लेष और सन्दर्भ की वह नवीनता पाई जाती है, जो उस में
टटकापन ला देती है। यद्यपि प्रत्येक पद्य अपने में स्वतन्त्र है फिर भी पूरे
शतक को पढ़ जाने पर लगता है कि मूल कथा का कोई प्रसंग छूट नहीं पाया है;
यह अवश्य है कि पद्यों की क्रम-व्यवस्था घटनाक्रम के पूर्वापर से मेल नहीं खाती
है । कहीं-कहीं सन्दर्भ इतने गूढ़ हैं कि तत्काल उनका सूत्रानुसन्धान नहीं किया
जा सकता । बाण को लम्बे-लम्बे समस्त पदों वाली श्लेषघना शैली प्रिय रही
है । पहली बात का छन्द में निर्वाह होना कठिन है । कोई-कोई पद्य तो ऐसा
श्लेषाश्लिष्ट है कि उसकी दो बार व्याख्या किए बिना अर्थ ही स्पष्ट नहीं
होता। इस रचना में उक्तिवैचित्र्य ही कवि का मुख्य लक्ष्य ज्ञात होता है;
श्लिष्ट और सन्दर्भित पदों का प्रयोग उसकी शैली से अभिन्न है, अन्य अलंकार
जहां कहीं दृष्टिगत होते हैं, वे स्वतः आ गए हैं, उनके लिए कोई प्रयास नहीं
करना पड़ा है । उपमानों और उत्प्रेक्षाओं का आधार प्रायः पौराणिक कथाएं
ही हैं, परन्तु प्रकृति का सहज प्रेमी कवि, जहां भी अवसर मिला है वहां, उसका
चेतोहर चित्रण किए बिना नहीं रहा है। औचित्य का निर्वाह करते हुए
यथावसर शृंगार-वर्णन तो किया ही गया है, परन्तु प्रशान्त वीर के साथ-साथ
अन्य रसों का भी यत्र-तत्र समावेश हुआ है । गुप्तकालीन स्त्रियों की वेशभूषा,
आभूषण और कतिपय सामाजिक रीतियों का भी दिग्दर्शन स्वतः हो गया है ।
उदाहरण के रूप में पाठकों के विनोदार्थ कतिपय पद्यों के भावार्थ का उद्धरण
यहां पर अनवसर नहीं होगा--