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के मधुरस
इसमें देवी के मधुपान का संकेत है, जिसका रहस्य यह है कि परमेष्ठीमण्डल सोम
से आपूरित है; इसी सर्वव्यापक भौतिक द्रव्य से पिण्डसृष्टि होती है । परमेष्ठी
का सोम निरन्तर सौरमण्डल को अनुप्राणित करता रहता है । मधु सोम का
प्रतीक है । पर्याप्त सोम के बिना सौर
होते ही महिष नष्ट हो जाता है। इसीलिए देवी ने कहा
यावन् मधु पिबाम्यहम्' अर्थात् जब तक सौर में पर्याप्त सोम नहीं पहुँचता तभी
तक तेरी स्थिति है ।' महिष के नि:शब्द कण्ठ होने का अर्थ यह है कि जो वाक्तत्त्व
उससे अभिभूत हो गया था वह उसके अधिकार से निकल गया और देवों को
प्राप्त हो गया । दुर्गासप्तशती में इसका स्पष्ट संकेत है
गर्ज गर्ज क्ष
मया त्वयि हतेऽत्रैव गर्जिष्यन्त्याशु देवताः ॥
विराट् विश्व में जो सङ्घटनाएं घटित होती हैं वे ही सीमित शरीर-
में भी होती रहती हैं । जो ब्रह्माण्ड में होता है वही पिण्ड में होता है ।
श्र
अविद्याजन्य कल्मष से
रूपी देवताओं (जिनका स्वामी इन्द्र है) पर हावी हो जाता है
सूर्य-आत्मा को भी ग्रस्त करने को उद्यत् होता है । 'सूर्य आत्मा जगत:' । इस
संकट में सभी
हैं और उनकी
रूपी महिष का विनाश करके उन सब को प्रकृतिस्थ कर देती है ।
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वेद में वर्णित और लोक में घटित घटनाओं का समन्वय पुराणों में हुआ है।
भारतीय विशिष्ट स्थलों, जनपदों,
भी पुराणों में प्राय: उक्त सङ्घटनाओं की व्याख्यानुरूप ही होता है । महाभारत,
ब्रह्मपुराण, ब्रह्माण्ड, मार्कण्डेय, मात्स्य, पाद्म, वायु और वामनपुराण में माहिषक,
माहिषिक
के निवासी
मण्डल का भी उल्लेख शिला एवं ताम्रलेखों में मिलता है। वर्तमान मैसूर को
भी जगह-जगह महिषपुर नाम से अभिहित किया गया है। महिषासुरमर्दिनी ही
वहीं
वहाॅं की अधिष्ठात्री देवी है। यह भी कहा जाता है कि बहुत पूर्वकाल में वहाँ
के निवासी महिष का पूजन भी किया करते थे ।
स्वामी था जो बाद में देवों के प्रभाव से
वा
बाण के विषय में भोज ने सरस्वतीकण्ठाभरण में कहा है कि 'यादृग्गद्यवि