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[ १५ ]
 
क्योंकि इसके कर्म अत्यन्त घोर हैं' इत्यादि । इसी प्रकार १५वें श्लोक में महिष
के मधुरस निभृत षट्पद के समान निश्चेष्ट और नि:शब्द हो जाने का वर्णन है ।
इसमें देवी के मधुपान का संकेत है, जिसका रहस्य यह है कि परमेष्ठीमण्डल सोम
से पूरित है; इसी सर्वव्यापक भौतिक द्रव्य से पिण्डसृष्टि होती है । परमेष्ठी
का सोम निरन्तर सौरमण्डल को अनुप्राणित करता रहता है । मधु सोम का
प्रतीक है । पर्याप्त सोम के बिना सौर केन्द्र का परिपाक नहीं होता, उसके पूर्ण
होते ही महिष नष्ट हो जाता है। इसीलिए देवी ने कहा - 'गर्ज गर्ज क्षरणं मूढ
यावन् मधु पिबाम्यहम्' अर्थात् जब तक सौर में पर्याप्त सोम नहीं पहुँचता तभी
तक तेरी स्थिति है ।' महिष के नि:शब्द कण्ठ होने का अर्थ यह है कि जो वाक्तत्त्व
उससे अभिभूत हो गया था वह उसके अधिकार से निकल गया और देवों को
प्राप्त हो गया । दुर्गासप्तशती में इसका स्पष्ट संकेत है -
 
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गर्ज गर्ज क्षरणं मूढ मधु यावत् वाम्यहम् ।
मया त्वयि हतेऽत्रैव गजिष्यन्त्याशु देवताः ॥
 
विराट् विश्व में जो सङ्घटनाएं घटित होती हैं वे ही सीमित शरीर- विश्व
में भी होती रहती हैं । जो ब्रह्माण्ड में होता है वही पिण्ड में होता है ।
श्रविद्याजन्य कल्मष से प्रावृत मलीमस मन का प्रतीक ही महिष है । वह इंद्रियों
रूपी देवताओं (जिनका स्वामी इन्द्र है) पर हावी हो जाता है औौर स्वयंप्रकाश
सूर्य-आत्मा को भी ग्रस्त करने को उद्यत् होता है । 'सूर्य आत्मा जगत:' । इस
संकट में सभी इंन्द्रिय-देवताए अपनी-अपनी शक्ति समर्पित कर सङ्घटित होती.
हैं और उनकी प्रविकृति-प्रकृति रूपी महाशक्ति जागृत होकर उस महान् अंधकार
रूपी महिष का विनाश करके उन सब को प्रकृतिस्थ कर देती है ।
 
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वेद में वर्णित और लोक में घटित घटनाओं का समन्वय पुराणों में हुआ है।
भारतीय विशिष्ट स्थलों, जनपदों, जांतियों और व्यक्तियों का नामकरण
भी पुराणों में प्राय: उक्त सङ्घटनाओं की व्याख्यानुरूप ही होता है । महाभारत,
ब्रह्मपुराण, ब्रह्माण्ड, मार्कण्डेय, मात्स्य, पाद्म, वायु और वामनपुराण में माहिषक,
माहिषिक श्रथवा माहिषीक जाति का उल्लेख है, और इन लोगों को दक्षिणापथ
के निवासी श्रथवा द्रविड कहा गया है । इसी प्रकार महिष-विषय अथवा महिष-
मण्डल का भी उल्लेख शिला एवं ताम्रलेखों में मिलता है। वर्तमान मैसूर को
भी जगह-जगह महिषपुर नाम से अभिहित किया गया है। महिषासुरमर्दिनीही
वहीं की अधिष्ठात्री देवी है। यह भी कहा जाता है कि बहुत पूर्वकाल में वहाँ
के निवासी महिष का पूजन भी किया करते थे । यंम उनका उपास्य अथवा
स्वामी था जो बाद में देवों के प्रभाव से प्रार्यदेवों में सम्मिलित हो गया ।
 
वाण के विषय में भोज ने सरस्वतीकण्ठाभरण में कहा है कि 'यादृग्गद्यविधी'