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तब तक तमोरूप महिष केन्द्र को अभिभूत नहीं कर पाता, वह उस स्थान से
परे रहता है, अपगत हो जाता है। जब प्राण को अपान का बल प्राप्त हो जाता
है तभी महिष केन्द्र को छोड़ कर हट जाता है, यही शाश्वत चक्र है' ।
इसीलिए देवी ने कहा कि इसके लिए कोई बहुत बड़ी हलचल करने की
आवश्यकता नहीं है, केवल गत्यर्थसूचक पाद-प्रक्षेप से ही यह यन्त्र ठीक हो
 
जायगा ।
 
प्रन्तश्चरति रोचनाऽस्य प्राणादपनती ।
 
व्यख्यन् महिषो दिवम् ॥ ऋ० १० ११८६२
 
प्रत्येक वस्तु के चारों ओोर एक मण्डल होता है, जो उसको द्युमण्डल कहलाता
है; उस मण्डल में केन्द्र से परिधि और परिधि से केन्द्र की ओर प्राण और
अपान की रोचना या रोशनी की गति और भांगति रूपी क्रिया होती रहती है ।
इस गत्यागति- व्यापार को छोड़ कर मलीमस महिष अलग हो जाता है । यह
तमोपुञ्ज महिष रूप जब प्रबल हुआ तो विभक्त देव प्राण उसको अपगत करने
में असमर्थ हुआ । अतः सम्मिलित शक्तिरूप देवी ने अक्षुब्ध रह कर किंचित्
पाद - प्रक्षेप से ही उस चक्र को पुनः गतिमान कर दिया; महिष का वध हो
 
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गया ।
 
चण्डीशतक के श्लोक सं० २५, ४५ व ५४ में कंस के हाथ से छूट कर
प्रकाश में उत्पतित होने वाली योगमाया को ही महिषमदिनी देवी कहा गया है ।
महामाया श्रव्यय परमात्मतत्त्व की निरपेक्ष शक्ति का नाम है। योगमाया उसी का
सापेक्ष पक्ष है । योगमाया महामाया से पराक्गति है । सर्ग-क्रिया में सब चरित्र
योगमाया का रहता है, प्रतिसर्ग में उसका अभिधान महामाया होता है क्योंकि
वह तदभिमुख होती है। निरपेक्ष महामाया से योग होने के कारण ही वह
'योगमाया' कहलाती है । वस्तुत: वह सर्वप्रपञ्चकारणभूता आद्याशक्ति का ही
सर्वदेवगुणान्वित रूप है ।
 
देवीने पादप्रहार करके असुर को त्रिशूल से आहत किया तो भी उसके मुख
से उसके प्राण अर्धनिष्क्रांत ही हुए; तब देवी ने उसका खड्ग से वध किया ।
इसका संकेत चण्डीशतक के ७०वें श्लोक में है, जिसमें देवगण देवी से प्रार्थना
करते हैं कि, 'हे देवी ! इसका वध निस्त्रिश ( खड्ग ) के द्वारा ही उचित है,
 
१. चण्डीशतकम्, श्लो० ६ ।
 
२. श्लोक १३ में भी यही भाव है कि देवी के शरीरावयवों में कोई विकृति नहीं प्राई ।