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उसमें कोई आसुरी - -विकृति नहीं प्राती है। चण्डीशतक के प्रथमश्लोक में इसी भाव

की ओर संकेत है । कोप प्राकृतिक -विकार अर्थात् प्रासुरी भाव है । उसके उत्पन्न

होकर प्रबल हो जाने पर सहज प्रथवा प्राकृतिक भाव दब जाता है। अतः देवी अपने

प्राकृतिक शरीरावयवों को संयत रहने और विकृत न होने को कहती है ताकि

वह कोपरूपी प्रासुरी-भाव स्व-प्रकृति पर हावी न हो सके । वह कोप के चिह्नों

तक का उदय नहीं होने देना चाहती[^१] । जब क्रोध आता है तो भौंहेहें तन जाती

हैं, श्रोठ फड़कने लगते हैं, चेहरे का रंग बदल जाता है और हाथ हथियार

सम्हालने लगते हैं । परन्तु देवी (पारमेष्ठ्य -शक्ति ) अपने में कोई क्षोभ या

हलचल उत्पन्न नहीं होने देना चाहती। वह कहती है -
 
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'हे भ्रू ! अपने (लोककल्याणकारी प्रक्षुब्ध ) विभ्रम ( विलास ) को भङ्ग

मत करो ; हे अधर ! अनवसर ही यह कैसा वैकल्य ? हे मुख ! अपना (सहज

शान्त ) रङ्ग मत छोड़ो ; अरे हाथ ! यह तो प्राणी ही है, इससे कलह करने

के लिए त्रिशूल क्यों सम्हाल रहे हो ? इस प्रकार अपने जिन शरीरावयवों में

में कोप के चिह्न प्रकट होने लगे थे उनको प्रकृतिस्थ करके देवी ने मरुद्गणों

(देवों) के शत्रु के प्राण हरने वाला जो पद ( चरण ) उसके ( महिष के ) सिर

पर घर दिया, वह आपके पापों का नाश करे ।'
 
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महिष पारमेष्ठ्य असुर है । यह परमेष्ठी से ही उत्पन्न देवात्मक सौरमण्डल

पर आक्रमण करता है। पारमेष्ठ्य सौर-प्रांराण का पर्याय इन्द्र है और वारुण-

पारमेष्ठ्य को महिष कहा गया है। जो सौर या जागृत भाव को प्रावृत कर
"

लेता है वह महिष है। उक्त श्लोक में महिष को मरुदसुहृद् अर्थात् मरुद्गण

( देवों) का असुहृद् कहा गया है । मरुत् वायु का भी पर्याय है । सौर मण्डल

की रचना प्राण और पान के सम्मिलित स्पन्दन से हुई है। स्वयंभू श्रीर
और
परमेष्ठी प्राणत् हैं और चन्द्र तथा पृथ्वी प्रपानत् रूप हैहैं । केन्द्र से परिधि
श्रो
की
र जो बल प्रसारित होता है वह प्राणक्रियासम्पन्न है और जब वह परिधि

से केन्द्र की ओर लौटता है तब वह अपानरूप होता है । यह गति और प्रागति

क्रिया ही विश्वव्यापार का मूलाधार है । जब तक यह क्रिया संतुलित रहती है
 

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.] श्लोक यहीं पढ़ लीजिए -
 
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मा भांक्षीर्विभ्रमं भ्रः रघरूरधर विधुरता केयमास्यास्य रागं

पाणे प्राण्येव. नायं कलयसि कलहश्रद्धया किकिं त्रिशूलम् ।

इत्युद्यत्कोपकेतून् प्रकृतिमवयवान् प्रापयन्त्येव देव्या

न्यस्तो वो मूर्ध्नि मुष्यात्न्मरुदसुहृदसून् संहरन्नंघ्रिरंहः ॥१॥
 
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