2023-02-24 17:17:19 by ambuda-bot
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[ १३ ]
उसमें कोई आसुरी - विकृति नहीं प्राती है। चण्डीशतक के प्रथमश्लोक में इसी भाव
की ओर संकेत है । कोप प्राकृतिक विकार अर्थात् प्रासुरी भाव है । उसके उत्पन्न
होकर प्रबल हो जाने पर सहज प्रथवा प्राकृतिक भाव दब जाता है। अतः देवी अपने
प्राकृतिक शरीरावयवों को संयत रहने और विकृत न होने को कहती है ताकि
वह कोपरूपी प्रासुरी-भाव स्व-प्रकृति पर हावी न हो सके । वह कोप के चिह्नों
तक का उदय नहीं होने देना चाहती । जब क्रोध आता है तो भौंहे तन जाती
हैं, श्रोठ फड़कने लगते हैं, चेहरे का रंग बदल जाता है और हाथ हथियार
सम्हालने लगते हैं । परन्तु देवी (पारमेष्ठ्य शक्ति ) अपने में कोई क्षोभ या
हलचल उत्पन्न नहीं होने देना चाहती। वह कहती है -
.
'हे भ्रू ! अपने (लोककल्याणकारी प्रक्षुब्ध ) विभ्रम ( विलास ) को भङ्ग
मत करो ; हे अधर ! अनवसर ही यह कैसा वैकल्य ? हे मुख ! अपना (सहज
शान्त ) रङ्ग मत छोड़ो ; अरे हाथ ! यह तो प्राणी ही है, इससे कलह करने
के लिए त्रिशूल क्यों सम्हाल रहे हो ? इस प्रकार अपने जिन शरीरावयवों में
में कोप के चिह्न प्रकट होने लगे थे उनको प्रकृतिस्थ करके देवी ने मरुद्गणों
(देवों) के शत्रु के प्राण हरने वाला जो पद ( चरण ) उसके ( महिष के ) सिर
पर घर दिया, वह आपके पापों का नाश करे ।'
4
·
महिष पारमेष्ठ्य असुर है । यह परमेष्ठी से ही उत्पन्न देवात्मक सौरमण्डल
पर आक्रमण करता है। पारमेष्ठ्य सौर-प्रांण का पर्याय इन्द्र है और वारुण-
पारमेष्ठ्य को महिष कहा गया है। जो सौर या जागृत भाव को प्रावृत कर
" लेता है वह महिष है। उक्त श्लोक में महिष को मरुदसुहृद् अर्थात् मरुद्गण
( देवों) का असुहृद् कहा गया है । मरुत् वायु का भी पर्याय है । सौर मण्डल
की रचना प्राण और पान के सम्मिलित स्पन्दन से हुई है। स्वयंभू श्रीर
परमेष्ठी प्राणत् हैं और चन्द्र तथा पृथ्वी प्रपानत् रूप है । केन्द्र से परिधि
श्रोर जो बल प्रसारित होता है वह प्राणक्रियासम्पन्न है और जब वह परिधि
से केन्द्र की ओर लौटता है तब वह अपानरूप होता है । यह गति और प्रागति
क्रिया ही विश्वव्यापार का मूलाधार है । जब तक यह क्रिया संतुलित रहती है
१. श्लोक यहीं पढ़ लीजिए -
मा भांक्षीविभ्रमं भ्रः रघर विधुरता केयमास्यास्य रागं
पारणे प्राण्येव. नायं कलयसि कलहश्रद्धया कि त्रिशूलम् ।
इत्युद्यरकोपकेतून प्रकृतिमवयवान् प्रापयन्त्येव देव्या
न्यस्तो वो मूर्ध्नि मुष्यात्मरुदसुहृदसून् संहरन्न घ्रिरंहः ॥१॥
"
उसमें कोई आसुरी - विकृति नहीं प्राती है। चण्डीशतक के प्रथमश्लोक में इसी भाव
की ओर संकेत है । कोप प्राकृतिक विकार अर्थात् प्रासुरी भाव है । उसके उत्पन्न
होकर प्रबल हो जाने पर सहज प्रथवा प्राकृतिक भाव दब जाता है। अतः देवी अपने
प्राकृतिक शरीरावयवों को संयत रहने और विकृत न होने को कहती है ताकि
वह कोपरूपी प्रासुरी-भाव स्व-प्रकृति पर हावी न हो सके । वह कोप के चिह्नों
तक का उदय नहीं होने देना चाहती । जब क्रोध आता है तो भौंहे तन जाती
हैं, श्रोठ फड़कने लगते हैं, चेहरे का रंग बदल जाता है और हाथ हथियार
सम्हालने लगते हैं । परन्तु देवी (पारमेष्ठ्य शक्ति ) अपने में कोई क्षोभ या
हलचल उत्पन्न नहीं होने देना चाहती। वह कहती है -
.
'हे भ्रू ! अपने (लोककल्याणकारी प्रक्षुब्ध ) विभ्रम ( विलास ) को भङ्ग
मत करो ; हे अधर ! अनवसर ही यह कैसा वैकल्य ? हे मुख ! अपना (सहज
शान्त ) रङ्ग मत छोड़ो ; अरे हाथ ! यह तो प्राणी ही है, इससे कलह करने
के लिए त्रिशूल क्यों सम्हाल रहे हो ? इस प्रकार अपने जिन शरीरावयवों में
में कोप के चिह्न प्रकट होने लगे थे उनको प्रकृतिस्थ करके देवी ने मरुद्गणों
(देवों) के शत्रु के प्राण हरने वाला जो पद ( चरण ) उसके ( महिष के ) सिर
पर घर दिया, वह आपके पापों का नाश करे ।'
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महिष पारमेष्ठ्य असुर है । यह परमेष्ठी से ही उत्पन्न देवात्मक सौरमण्डल
पर आक्रमण करता है। पारमेष्ठ्य सौर-प्रांण का पर्याय इन्द्र है और वारुण-
पारमेष्ठ्य को महिष कहा गया है। जो सौर या जागृत भाव को प्रावृत कर
" लेता है वह महिष है। उक्त श्लोक में महिष को मरुदसुहृद् अर्थात् मरुद्गण
( देवों) का असुहृद् कहा गया है । मरुत् वायु का भी पर्याय है । सौर मण्डल
की रचना प्राण और पान के सम्मिलित स्पन्दन से हुई है। स्वयंभू श्रीर
परमेष्ठी प्राणत् हैं और चन्द्र तथा पृथ्वी प्रपानत् रूप है । केन्द्र से परिधि
श्रोर जो बल प्रसारित होता है वह प्राणक्रियासम्पन्न है और जब वह परिधि
से केन्द्र की ओर लौटता है तब वह अपानरूप होता है । यह गति और प्रागति
क्रिया ही विश्वव्यापार का मूलाधार है । जब तक यह क्रिया संतुलित रहती है
१. श्लोक यहीं पढ़ लीजिए -
मा भांक्षीविभ्रमं भ्रः रघर विधुरता केयमास्यास्य रागं
पारणे प्राण्येव. नायं कलयसि कलहश्रद्धया कि त्रिशूलम् ।
इत्युद्यरकोपकेतून प्रकृतिमवयवान् प्रापयन्त्येव देव्या
न्यस्तो वो मूर्ध्नि मुष्यात्मरुदसुहृदसून् संहरन्न घ्रिरंहः ॥१॥
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