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परात्पर ब्रह्म अव्यक्त, अज्ञेय और स्वयम्भू है। उसका कारण ज्ञात नहीं
है। उससे उत्पन्न महत्तत्त्व या महिम-भाव परमेष्ठी कहलाता है। जब तक
परमेष्ठी-भाव व्यक्त नहीं होता तब तक, वह क्या है, है भी या नहीं, इसका
कोई पता नहीं चलता । अन्धकार अन्धकार को ढॅंके रहता है । यह परमेष्ठी-
भाव ही उस स्वयम्भू को ससीम रूप में व्यक्त करता है, वह उसके किसी अंश
को मापता है इसलिए 'माता' कहलाता है । वही विश्व का मातृत्व है; स्वयम्भू
पितृत्व है; बीज है । महत्तत्त्वावच्छिन्न ब्रह्म ही विश्वयोनि है ।[^१] स्वयम्भू और
परमेष्ठी का दाम्पत्य ही जगत्-सृष्टि का मूल कारण है । स्वयम्भू में स्थिति
है, परमेष्ठी में गति है; स्वयम्भू सत्य है, परमेष्ठी ऋत है; उसका आर्तव ही
जगत्प्रसूति का कारण है। स्वयम्भू का कोई चरित्र नहीं है, उसमें विकृति या
बदल नहीं है; परमेष्ठी की चञ्चल गतियों से ही चरित्रोद्गम होता है। वरुण
और अंधकार, देव और असुर, रात्रि और सोम इन सभी की जननी देवी
माता है ।
 
परमेष्ठी की जो शक्ति स्वयम्भू-गर्भित होती है वही देवी है । उसीके विकास
में पृथ्वी, अन्तरिक्ष और द्यौ दीव्यत् होते हैं, दिखाई पड़ते हैं । पृथ्वी, अन्तरिक्ष,
द्यौः, परमेष्ठी और स्वयम्भू, यही विश्व-प्रपञ्च है । इसमें तीन पर्व व्यक्त
हैं, शेष दो अव्यक्त । द्यौ: और पृथ्वी ही प्रत्येक प्राणी के जन्म का कारण है ।
इनकी प्रजा मर्त्य होती है, व्यक्त होती है; स्वयंभू श्रीर परमेष्ठी का युग्म अमृत
और अव्यक्त है, विकृति रहित है ।
 
स्वयम्भू की विशुद्ध प्राणात्मिका शक्ति ही माया कहलाती है क्योंकि वह उसी
के द्वारा मापा या जाना जा सकता है अथवा जितना अंश मायावच्छिन्न होता
है वह उतना ही नहीं होता, उससे परे भी होता है; मा या (यह ही नहीं है ) ।
यही शक्ति परमेष्ठी में आकर देवी हो जाती है, चमकने लगती है। इसमें देव-
भाव और असुरभाव साथ-साथ उत्पन्न होते हैं । एक भाव दूसरे पर हावी होने
को सचेष्ट होता है, यही देवासुर संग्राम है। परन्तु, वह पारमेष्ठ्य प्रकृति या
शक्ति, दैवी हो अथवा आसुरी, सदा देवकार्य का ही साधन करती है[^२]। आत्म-
भाव अथवा केन्द्रभाव ही देवभाव है । जब तक असुरभाव का केन्द्र को अभिभूत
करने का उपक्रम नहीं होता तब तक देवी उसका दमन नहीं करती हैं अर्थात्
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[^१] 'मम योनिर्महद्ब्रह्म'--गीता ।
 
[^२] देवानां कार्यसिद्ध्यर्थमाविर्भवति सा यदा ।
उत्पन्नेति तदा लोके सा नित्याऽप्यभिधीयते ॥४८॥ दु० स०--१