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है। उससे उत्पन्न महत्तत्त्व या महिम-भाव परमेष्ठी कहलाता है। जब तक
•
परमेष्ठी
कोई पता नहीं चलता । अन्धकार अन्धकार को
"
भाव ही उस स्वयम्भू को
को मापता है इसलिए 'माता' कहलाता है । वही विश्व का मातृत्व है; स्वयम्भू
पितृत्व है;
परमेष्ठी का दाम्पत्य ही जगत्-सृष्टि का मूल कारण है । स्वयम्भू में स्थिति
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है, परमेष्ठी में गति है; स्वयम्भू सत्य है, परमेष्ठी
जगत्प्रसूति का कारण है। स्वयम्भू का कोई चरित्र नहीं है, उसमें विकृति या
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बदल नहीं है; परमेष्ठी की चञ्चल गतियों से ही चरित्रोद्गम होता है। वरुण
श्रो
और अंधकार, देव और असुर, रात्रि और सोम इन सभी की जननी देवी
माता है ।
परमेष्ठी की जो शक्ति स्वयम्भू-गर्भित होती है वही देवी है । उसीके विकास
में पृथ्वी, अन्तरिक्ष और द्
द्यौः, परमेष्ठी और स्वयम्भू, यही विश्व
हैं, शेष दो अव्यक्त । द्
इनकी प्रजा मर्त्य होती है, व्यक्त होती है; स्वयंभू श्रीर परमेष्ठी का युग्म अमृत
·
और अव्यक्त है, विकृति रहित है ।
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स्वयम्भू की विशुद्ध प्राणात्मिका शक्ति ही माया कहलाती है क्योंकि वह उसी
के द्वारा मापा या जाना जा सकता है अथवा जितना अंश मायावच्छिन्न होता
है वह उतना ही नहीं होता, उससे परे भी होता है; मा या (यह ही नहीं है ) ।
यही शक्ति परमेष्ठी में
भाव और असुरभाव साथ-साथ उत्पन्न होते हैं । एक भाव दूसरे पर हावी होने
को सचेष्ट होता है, यही देवासुर संग्राम है। परन्तु, वह पारमेष्ठ्य प्रकृति
शक्ति, दैवी हो अथवा
भाव अथवा केन्द्रभाव ही देवभाव है । जब तक असुरभाव का केन्द्र को अभिभूत
करने का उपक्रम नहीं होता तब तक देवी उसका दमन नहीं करती हैं अर्थात्
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उत्पन्