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हेतु ही पुराण में विविध रोचक कथाओं का सारगर्भित विस्तार हुआ है । इसी
लिए पुराणों की भाषा प्रायः प्रतीकात्मक होती है। वेद का अव्यय, अक्षर और
क्षर नामक पुरुष-त्रिक अथवा अग्नित्रयी ही पुराणों के विधि, हरि, हर अथवा
ब्रह्मा, विष्णु, महेश नामक त्रिदेव हैं; इन्हीं को दर्शन में सत्व, रज और तम
नामक गुण-त्रय कहा गया है। अतः यह आवश्यक है कि पुराण में वर्णित
विषयों का अर्थोद्घाटन करने के लिए प्रतीकों के रहस्यों को चौड़े में लाया
जाय । प्रत्येक कथा का एक बाह्य अथवा स्थूल रूप होता है और दूसरा
आभ्यन्तरिक अथवा सूक्ष्म रूप, जिसकी व्याख्या आध्यात्मिक दृष्टिकोण से
होनी चाहिए । बाह्य स्वरूप का स्तर अथवा धरातल मानवी और अनित्य होता
है और आभ्यन्तर स्वरूप का स्तर माध्यात्मिक होता है, जिसमें देवतत्व की
नित्यलीला की व्याख्या होती है। इन रहस्यों के ये अनित्य और नित्य रूप
परस्पर सापेक्ष्य और अविनाभूत हैं । एक के सहारे से दूसरे की व्याख्या उभय
धरातलों पर सहज ही हो जाती है ।
 
परात्पर ब्रह्म को शार्बर तम अथवा गहन अन्धकार कहा गया है, उसको
जान लेना अतीव दुस्साध्य है, वह दुर्गम्य है। उसीकी विश्व-सृजन की इच्छा से
समुद्भासित मूल शक्ति का नाम देवी है, क्योंकि उसीके द्वारा उस दुर्गम्य का
भास होता है । दुर्गम्य की शक्ति होने से ही वह दुर्गा कहलाती है।[^१]
यही शक्ति विश्व का मूल कारण है । 'शक्तिः करोति ब्रह्माण्डम्' ।[^२] इसी को
परमात्मिका शक्ति भी कहते हैं।[^३] ऋग्वेद के दसवें मण्डल में वागाम्भृणी सूक्त
में इस देवी की महिमा का वर्णन है । यही देवमाता अदिति है और इसी से
केशववासवादि (इन्द्रवरुणादि ) सब देवों की उत्पत्ति हुई है; यही वेद में
शब्दजननी वाक् नाम से अभिहित है और कल्पान्त में ब्रह्मादि देवगण इसी
अचिन्त्य-रूप-महिमा परा शक्ति में लीन हो जाते हैं ।[^४]
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[^१] दुःखेन कण्टेन गम्यते प्राप्यते ज्ञायते वा सा दुगर्मा दुर्गा । दु.स., प्रदीपव्याख्या ।
[^२] देवीभागवत । १.८.३७.
[^३] वही १.८.४७.
[^४] शब्दानां जननी त्वमत्र भुवने वाग्वादिनीत्युच्यसे
त्वत्तः केशववासवप्रभृतयोऽप्याविर्भवन्ति ध्रुवम् ।
लीयन्ते खलुं यत्र कल्पविरतौ ब्रह्मादयस्तेऽप्यमी
सा त्वं काचिदचिन्त्यरूपमहिमा शक्तिः परा गीयसे ॥१५॥ लघुस्तव ॥