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के शरीरों से निकला हुआ तेज एकस्थ होकर तीनों लोकों को व्याप्त करने वाली दिव्यातिदिव्य देवी के रूप में परिणत हो गया ।
 
ब्रह्मा, विष्णु और शिव तथा अन्य प्रमुख देवों ने अपने-अपने अमोघ
शस्त्रास्त्रों से उस देवी को सन्नद्ध किया। उसी समय देवी ने ज़ोर से अट्टहास
किया जिससे समस्त लोक कम्पायमान हो गए । महिष ने भी क्रोधित होकर
कहा 'आः यह क्या है ?' [^१] ऐसा कह कर समस्त असुरों को लेकर वह सामने
दौड़ा । उसने देखा कि उस महाशक्ति की कान्ति त्रैलोक्य में फैली हुई है
और वह अपनी सहस्रभुजाओं को चारों दिशाओं में फैला कर स्थित है ।[^२]
 
इसके बाद दोनों ओर से युद्ध आरम्भ हुआ । देवी ने असुरपति के चिक्षुर,
चामर, उदग्र, कराल, वाष्कल, ताम्र, अन्धक, अतिलोम, उग्रास्य, उग्रवीर्य,
महाहनु, विडालास्य, महासुर और दुर्मुख नामक चौदह सेनापतियों का बात की
बात में हनन कर दिया। तब महिषासुर ने महिष, हस्ति, मनुष्य आदि के
विविध रूप धारण करके युद्ध किया और अन्त में अपने उन विविध रूपों की
कापाल-माला को छोड़ कर पुन: महिष रूप में सामने आया । खीझ कर वह
सभी देवताओं और देवी को गर्जन-तर्जन करता हुआ सोत्प्रास वचन कहने
लगा ।[^३] उस समय देवी मधु-पान करने लगी थी। उसने कहा 'मूढ ! मैं मधुपान
करूं तब तक गर्जन कर ले, अभी मेरे द्वारा तेरा वध होने पर ये सभी देवता
प्रसन्न होकर गर्जने लगेंगे ।' ऐसा कह कर उस देवी ने अपने पैर की ठोकर मार
कर तथा तलवार से शिर काट कर उस महान् असुर को विगत-प्राण कर दिया ।
देवताओं में हर्ष की लहर दौड़ गई और शक्रादि सुरगणों ने पुलकित होकर
देवी की स्तुति की ।
 
यह महिषासुर-वध की कथा का स्थूल रूप है, जो पुराण में वर्णित है ।
इसी कथा के विविध सूत्रों को लेकर महाकवि बाण ने चण्डीशतक के श्लोकों
की रचना की है। प्रत्येक श्लोक में वर्णित देवी के स्वरूप और नाम से मङ्गल-
कामना की गई है ।
 
पौराणिक कथाओं का मूल स्रोत वेद है। वैदिक विद्याओं के उपबृंहण
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[^१] 'आः किमेतदिति क्रोधादाभाष्य महिषासुरः' ॥ दु. स. २-२५
[^२] 'स ददर्श ततो देवीं व्याप्तलोकत्रयां त्विषा' । दु. स. २-३६
[^३] चण्डीशतक के श्लोक ७६, ७७, ८०, ८१, ८२,८३,८५, ९१, ९२, १०० में दैत्य के सोत्प्रास कलुषित वचन बोलने का वर्णन है ।