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प्राचीन प्रामाणिक उल्लेख अन्य दोनों कवियों का नहीं पाया जाता; अतः इनकी

समसामयिकता विचारणीय ही है। उक्त दोनों शतकों का किसी-न-किसी रूप

में चण्डीशतक के साथ सम्बन्ध जोड़ा जाता है, इसीलिए इंतना उल्लेख श्राव-
आव-
श्यक हुआ । अस्तु,
 

 
चण्डीशतक की रचना का उद्देश्य या कारण कुछ भी रहा हो उसके मूल

में चण्डिका - -स्वरूपिणी भगवती योगमाया की भक्ति और उसका चरित्र -वर्णन

मुख्यतः बीजरूप से वर्तमान है ।
 

 
चण्डीशतक का वर्ण्य विषय चण्डी द्वारा महिषासुर का वध है। मूल कथा

महाभारत के नवम पर्व के ४४ से ४६ अध्याय के अन्तर्गत आती है। पुराणों

में इसका उपवृबृंहण हुआ है। मार्कण्डेय पुराण के अध्याय ८१ से ३ तक का

प्रकरण दुर्गा सप्तशती के नाम से प्रसिद्ध है। इसमें देवी द्वारा असुरों के विनाश

का वर्णन तीन चरित्रों के रूप में हुआ है। प्रथम चरित्र में मधु और कैटभ

नामक दैत्यों के वध की कथा है, मध्यम चरित्र में महिषासुर के विनाश की

और तीसरे अथवा उत्तम चरित्र में शुम्भ निशुम्भ नामक महापराक्रमी दानवों

के हनन का वर्णन है। मध्यम चरित्र ही चण्डीशतक की रचना का आधार है ।

इसकी कथा इस प्रकार है-
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प्राचीन काल में महिष नामक एक दुर्जय असुर ने जन्म लिया । उसने

इंन्द्र, सूर्य, चन्द्र, यम, वरुण, अग्नि, वायु श्रादि देवताओं को पराजित कर

दिया और वह स्वयं इन्द्र बन बैठा ।'[^१] देवगण अपने भोगैश्वर्य से हाथ धो बैठे

और इधर-उधर भटकने लगे । अन्त में, वे पद्मयोनि ब्रह्मा को साथ लेकर

विष्णु और शिव के पास गए[^२] और उन्होंने रो-धोकर अपनी कष्ट -कथा उनको

सुनाई । उनकी करुण -कहानी सुन कर मधुसूदन और शम्भु दोनों कुपित हुए

और उनके मुखों से एक महान् तेज प्रकट हुआ । इसके बाद ब्रह्मा, इन्द्र, सूर्य,

चन्द्र और यमादि देवताओं के शरीरों से भी तेज निर्गत हुआ । वह सब देवताओं
 

 
 
[^
.
 
२.
 
] जित्वा च सकलान् देवान् इन्द्रोऽभून्महिषासुरः ॥
 
--दु० स०, २-२
 

चण्डीशतक के श्लोकों में श्राप देखेंगे कि महिषासुर ने इन सभी देवताओं को एक एक

करके प्रतारित किया है ।
 

[^२]
ततः पराजिता: देवा: पद्मयोतिनिं प्रजापतिम् ।

पुरस्कृत्य गतास्तत्र
 
यत्रेशगरुडध्वजीजौ - --दु० स०, २-३.