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किया है । आनन्दवर्धन का समय नवीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध है ।
 
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भक्तामरस्तोत्र के रचयिता मानतुङ्गाचार्य के विषय में जैन-पट्टावलियों में
लिखा है कि वे प्रद्योतन सूरि के शिष्य मानदेव के शिष्य थे। उन्होंने भक्तामर -
स्तोत्र की रचना करके बाण श्रीरं मयूर पण्डित की विद्या से चमत्कृत क्षितिपति
को प्रतिबोधित किया था; परन्तु साथ ही यह भी उल्लेख है कि उनके पट्ट पर
इक्कीसवें आचार्य श्रीवीरसूरि हुए जिन्होंने महावीर से ७७० वर्ष उपरान्त
अर्थात् विक्रमीय संवत् ३०० में नागपुर में नमि-भवन की प्रतिष्ठा की
का समय और यह सम्वत् मेल नहीं खाता है। उधर, एक और मत यह है कि
मानतुङ्ग मालवा के चालुक्यवंशीय अधिपति वैरिसिंह के मन्त्री थे, जिसका समय
८५० ई० से ६०० ई० तक का है । वृद्धपट्टावली में लिखा है कि वैरिसिंह
 
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मालवा के परमार वंश संस्थापक उपेन्द्र प्रथवा कृष्णराज का क्रमानुयायी
प्रभावक- चरित्र में उल्लेख है कि मानतुङ्ग हर्ष शीलादित्य के दरबार में गए
और उन्होंने वहाँ पर बनारस में बाण और मयूर को परास्त किया ।
 

 
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वामन की काव्यालङ्कारसूत्रवृत्ति में कादम्बरी ओर हर्षचरित में से
उद्धरण मिलते हैं और सम्भवतः बाण की कृतियों में से ये ही प्राचीनतम उद्ध-
र हैं । वामन का समय आठवीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध माना जाता है। इतना
 
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१. मानन्दवन कृत ध्वन्यालोक में सूर्यशतक के ये दो श्लोक उद्धृत हैं-
दत्तानन्दाः प्रजानां समुचित समयाकृष्टसृष्टः पयोभिः
 
पूर्वाह नेऽतिप्रकोर्णा दिशि दिशि विरमत्यह, नि संहारभाजः ।
दीर्घंशोधंदुःखप्रभवभवभयो दन्वदुत्तारनांवो
 
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गांवो वः पावनास्ताः परमपरिमितां प्रीतिमुत्पादयन्तु ॥६॥
नो कल्पापायवायोरदयरयदलत्क्ष्माघरस्यापि गम्या
'गाढोत्कीर्णोज्ज्वलश्री रहनि न रहिता नो तमः कंज्जलेन ।
प्राप्तोत्पत्तिः पता पुनरुपगता मोषमुषण त्विषो वो
 
२. २१. एगवीसति,
 
वत्तिः संवान्यरूपा सुखयतु निखिलद्वीपदीपस्य दीप्तिः ॥२३॥
श्रीमानतु गसूरिपट्टएकविशतितमः श्रीषीरसूरिः स च श्रीवीरात्
सप्ततिसप्तशतवर्षे, विक्रमतः त्रिशती ३०० वर्षे नागपुरे श्रीनमिप्रतिष्ठाकृत् । यदुक्तम्---
नागपुरे नमिभवन प्रतिष्ठया महितपारिगसौभाग्यः ।
श्रभवंद्वोराचार्यस्त्रिभिः शतैः साधिके राज्ञः ॥१॥
 
पट्टावलीसमुच्चये, पृ. ५०
 
३. History of Classical Sanskirt Literature by M. Krishnamachariar,
 
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P. 329