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इसी प्रकार चण्डिका-मण्डप का ससत्त्व और सशक्त वर्णन भी बाण की
साम्ब - शिव-भक्ति का समर्थ उदाहरण है। यही नहीं, सामान्य वर्णनों में श्लेष
का श्राश्रय लेकर उसने अपने मन को इष्ट से कभी विश्लिष्ट नहीं होने दिया
है । वह चाण्डाल-कन्यका में भी किरातवेषा भवानी और महिषासुरमर्दिनी
कात्यायनी के स्वरूप का दर्शन करता है, विन्ध्याटवी में भी सर्वव्यापिनी महा-
माया के लीला-विग्रह का साक्षात्कार करता है, उसकी कथा के पात्रों के प्रङ्ग
चण्डिका की सेवा के लिए निर्मित हैं और उन पर उसका प्रतीक चिह्न वर्तमान
है, रुद्राक्षवलयग्रहणनिपुण महामुनि जाबालि में अम्बिका करतल की कल्पना
और उनके भस्मपाण्डुरोमाश्लिष्ट शरीर में पशुपति विग्रह की वर्तमानता सत्य-
व्रती साम्बशिव-सेवी बाण की हो अनुभूति है। इन्हीं महामुनि की पशुपति से
अभिन्नता की दूसरी कल्पना भी बहुत ही सुन्दर है । 'अहो यह जरा भी कितनी
साहस वाली है कि जिसकी ओर प्रलयकाल के सूर्य का किरणजाल भी नहीं
देख सकता, ऐसे इनके चन्द्रकिरण के समान सफेद बालों के जटाभार पर वह
इस तरह उतर आई है जैसे शिवजी के मस्तक पर फेनपुञ्जधवला गङ्गा उतर
श्राई हो । यही नहीं, प्राकृतिक दृश्यों में भी पद-पद पर उसे कण-कण में व्याप्त
त्र्यम्बकात्म-स्वरूप की ही प्रतीति होती है; चन्द्राभरणालङ्कृत नम्बरतल से
प्रवतरित ज्योत्स्नाप्रवाह को देख कर उसका मन त्र्यम्बक के उत्तमाङ्ग से
प्रवाहित होकर धरणीतल और सागरों को आपूरित करती हुई हंसधवला
गङ्गा
के ध्यान में मग्न हो जाता है । सफेद टीके वाला इन्द्रायुव अश्व भी
 
१. 'आकलितगोरोचनारचित तिलकतृतीयलोचनामीशान रचितानुर चितकिरातवेषामिव भवानी"
चाण्डाल कम्य का वर्णन, कादम्बरी, अनुच्छेद 5
 
२. अलक्तकरसरागपल्लवितपादपङ्कजामचिरमृदितमहिषासुररक्तचरणामिव कात्यायनीम् ।
 
वही,
 
अनु० ८
 
३. कात्यायनीव प्रचलितखड्गभीषणा, कल्पान्तप्रदोषसन्ध्येव प्रनृत्तनीलकण्ठा, गिरितनयेव
स्थाणुसङ्गता मृगपतिसेविता च ।
 
विन्ध्याटवीवर्णन, का०, अनु० १७
 
४. श्राजानुलम्बेन कुञ्जरकरप्रमाणमिव गृहीत्वा निर्मितेन चण्डिकारुधिरबलिप्रदानार्थं मस-
कृन्निशित शस्त्रोल्लेख विषमित शिखरेण भुजयुगलेनोपशोभितं, अकारणेऽपि क्रूरतया बद्ध-
त्रिपताकोग्र भृकुटिकराले ललाटफलके प्रबलभक्त्याराधितया मत्परिग्रहोऽयमिति कात्या-
यन्या त्रिशूलेनेवाङ्कितं; अचल राजकन्यका केशपाशमिव नीलकण्ठचन्द्रकाभरणं, अम्बिका-
त्रिशूलमिव महिषरुधिराद्र कायम् ॥
 
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शबरसेनापतिवर्णन, का०, अनु० २८
 
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