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अज्ञात-साहित्य समुद्र में गोता लगाने में निपुण नाहटा बन्धुत्रोंओं ने इस कृति

का पता लगा कर विद्वत्समुदाय को उपकृत किया है । इस प्रकाशन के लिए

उनको प्रेरणा ही गतिदायिनी हुई है इसलिए उनको धन्यवाद देना कर्तव्य

मानता हूँ ।
 

 
प्रतिष्ठान में कार्यकाल के समय मेरे सुहृद् और सहयोगी श्रीलक्ष्मीनारायण

जी गोस्वामोमी पाठ-मीलान और प्रूफसंशोधन आदि में वाञ्छित सहायता करते

रहे हैं औौर निवृत्त्युपरान्त मेरोरी कनिष्ठा पुत्री श्रीमती लीलाकुमारी पारीक ने

उस साहाय्य कार्य का निर्वाह किया है। मैं इन दोनों ही सहयोगियों को स्नेहा-

भिषिक्त साधुवादों से सत्कृत करता हूँ ।
 

 
श्रीब्रजमोहनजी जावलिया, उदयपुर शा. का. के इन-चार्ज़ ने भी मुझे

समय-समय पर आवश्यक सूचनाएं दोदी हैं तदर्थ वे धन्यवादार्ह हैं ।
 

 
क्लिष्ट पाठ और अनेक प्रतिलिपिकर्ताओं द्वारा तैयार की गई होने के कारण

अस्पष्ट-सी प्रेसकॉपी से अक्षर-योजना करके मेरी इच्छानुसार अपेक्षा से भी

अधिक बार प्रूफ देने में कभी हिचक न करने वाले श्री हरिप्रसादजी पारीक

(साधना प्रेस के स्वामी ) भी मेरे द्वारा हजार बार धन्यवाद के अधिकारी हैं ।
 

 
इस प्रकाशन से संस्कृत-साहित्य की एक अद्यावधि अप्रकाशित एवं बहु-

प्रतीक्षित कृति सामने आ रही है, इतना सन्तोष तो विद्वानों को होना ही चाहिये -
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अन्यथा शतक का चण्डोडी को स्तुतिपरक प्रत्येक श्लोक १००० बार मुद्रित हुआ

है अतः प्रतिष्ठान की भोर से लक्षचण्डी (याग) तो हो हो गया है
 
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अन्त में, मेरोरी योग्यता की स्वल्पता, प्रमाद अथवा अन्यान्य कारणों से इस

संस्करण में जो भी भूलें रह गई हों उनके लिए -
 
पुनश्च
 
जोधपुर
अक्षय नवमी,
सं० २०२४
 
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प्रणम्य मान्यान् विनिवेदयामि
 

ग्रन्थं मुदा पश्यत सावधानाः ।

दृष्टे यदस्मिन् परमः प्रमोदो
 

भवेत्तथा सिद्धिरपि प्रकृष्टा ॥
 

 
पुनश्च
 
विदितसकल वेद्येर्न प्रशंसन्ति लोके
 
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ग्
रथितमपि महद्भिः किकिं पुनर्मादृशेन ।

इति विफलश्रमेऽस्मिन् वाग्व्ययेऽहं प्रवृत्तः

स्वमतिविमलतायै क्षन्तुमहंर्हन्ति सन्तः । इति ॥
 
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जोधपुर
अक्षय नवमी,}
सं० २०२४
 
विनयपरायण

गोपालनारायण