2023-03-13 20:14:06 by manu_css
This page has been fully proofread once and needs a second look.
सुरक्षित रखने एवं अवकाश में कभी उनको प
किया । अतः जो कुछ मेरे पल्ले पड़ता उसको मैं टीपता रहता था
में कभी शास्त्रीजी विनोद में कह देते "लिखल्यो, बोराजी म्हाराज, कदे म्हाँकी
बातां याद
परन्तु समाधान किसके पास जाकर करू ? शरणजी भी नहीं रहे ! मेरे जैसे
को कौन अब समझाने बैठेगा ? अस्तु
ऊपर के अनुच्छेदों में देवी, महिष और महिषासुरवध की जो विवेचना की
गई है वह उन्हीं टिप्पणियों के आधार पर है। शरणजी की तो पृष्ठभूमि मजबूत
थी; उन्होंने तो कई रूपों में उस चर्चा को पल्लवित किया है;
अधि
प्रा
आत्माओं के प्रति
१
किं वा उससे भी कुछ दिन पहले से ही
महाराज के संपर्क में रहा हूं
प्रतिष्ठान की सेवा में अपने कार्यकाल के अधिकतम (१७) वर्ष व्यतीत किए
हैं । यह श्रीमुनिजी की ही सत्कृपा का फल
वाला जन भी इस चिरिस्थायिनी अक्षर-सम्बद्धा प्रवृत्ति में प्रवेश पाकर प्रासाद-
शिखरस्थ गरुड़ों की पंक्ति के आसपास स्थान पा गया । श्रीमुनिजी ने ही मेरा
हौसला बढाकर मेदपाटेश्वर महाराणा कुम्भकर्णकृत चण्डीशतकवृत्ति जैसे पाण्डित्य-
पूर्ण ग्रन्थ के कार्य में मुझे संलग्न किया और समय-समय पर
एवं यथाशक्य पाठसंशोधनादि कार्य में
उपकृत किया है। मुनिजी का व्यक्तित्व महान् है;
प्रशासनिक अथवा शैक्षणिक समस्याएं लेकर उनके सामने उपस्थित हुआ
तो मैंने सदा ही उनके निर्णय, सूझ और तत्परता में महानता के दर्शन किए हैं ।
में
मैं उनके प्रति आभार प्रकट करूँ या धन्यवाद अर्पित करूं तो यह सब
रिकता मात्र मानी जायगी। मैं तो केवल इतना
आ
लापने मुझे यह कार्य सौंपा था, जैसा बन पड़ा वैसा पूरा किया; आगे आप जानें ।
प्रतिष्ठान के वर्तमान निदेशक डॉ. फतहसिंहजी ने मुझे इस कार्य को पूरा
करने की स्वीकृति देते हुए जो सौहार्दपूर्ण व्यवहार किया उसके लिए
प्रति हृदय से समादर प्रकट करता हूँ ।
T
CC-0. RORI. Digitized by Sri Muthulakshmi Research Academy