2023-03-13 13:34:43 by ambuda-bot
This page has not been fully proofread.
[ ४२ ]
मुझे एक दिन बड़े ही ग्रात्मीय भाव से उनके व्याख्यान की टिप्पणियां लेकर
सुरक्षित रखने एवं अवकाश में कभी उनको पढ़ने और समझने का ग्राग्रह
किया । अतः जो कुछ मेरे पल्ले पड़ता उसको मैं टीपता रहता था । बीच-बीच
में कभी शास्त्रीजी विनोद में कह देते "लिखल्यो, बोराजी म्हाराज, कदे म्हाँकी
बातां याद श्रावली !" और वास्तव में मुझे अब उनकी बातें याद आती हैं,
परन्तु समाधान किसके पास जाकर करू ? शरणजी भी नहीं रहे ! मेरे जैसे
को कौन अब समझाने बैठेगा ? अस्तु -
ऊपर के अनुच्छेदों में देवी, महिष और महिषासुरवध की जो विवेचना की
गई है वह उन्हीं टिप्पणियों के आधार पर है। शरणजी की तो पृष्ठभूमि मजबूत
थी; उन्होंने तो कई रूपों में उस चर्चा को पल्लवित किया है; में तो इससे
अधिक और क्या कर सकता था ? अतः इस अवसर पर उन दोनों दिवङ्गत
प्रात्माओं के प्रति में श्रद्धाप्रपूरिताञ्जली अर्पित करता हूँ । ।
१६५० ई० में राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान की स्थापना के दिन से
किं वा उससे भी कुछ दिन पहले से ही में महामनीषी मुनि श्रीजिन विजयजी
महाराज के संपर्क में रहा हूं और उन्हीं के सम्मान्य सञ्चालकत्व मे मैंने इस
प्रतिष्ठान की सेवा में अपने कार्यकाल के अधिकतम (१७) वर्ष व्यतीत किए
हैं । यह श्रीमुनिजी की ही सत्कृपा का फल है कि मेरा जैसा सामान्य योग्यता-
वाला जन भी इस चिरिस्थायिनी अक्षर-सम्बद्धा प्रवृत्ति में प्रवेश पाकर प्रासाद-
शिखरस्थ गरुड़ों की पंक्ति के आसपास स्थान पा गया । श्रीमुनिजी ने ही मेरा
हौसला बढाकर मेदपाटेश्वर महाराणा कुम्भकर्णकृत चण्डीशतकवृत्ति जैसे पाण्डित्य-
पूर्ण ग्रन्थ के कार्य में मुझे संलग्न किया और समय-समय पर श्रावश्यक सुझाव देकर
एवं यथाशक्य पाठसंशोधनादि कार्य में प्रानेवालो ग्रन्थियों को
सुलझा कर
उपकृत किया है। मुनिजी का व्यक्तित्व महान् है; में जब जब भी विभागीय
प्रशासनिक अथवा शैक्षणिक समस्याएं लेकर उनके सामने उपस्थित हुआ
तो मैंने सदा ही उनके निर्णय, सूझ और तत्परता में महानता के दर्शन किए हैं ।
में उनके प्रति आभार प्रकट करूँ या धन्यवाद अर्पित करूं तो यह सब श्रीपचा-.
रिकता मात्र मानी जायगी। मैं तो केवल इतना ही कह सकता हूँ "मान्यवर !
आपने मुझे यह कार्य सौंपा था, जैसा बन पड़ा वैसा पूरा किया; आगे आप जानें । "
प्रतिष्ठान के वर्तमान निदेशक डॉ. फतहसिंहजी ने मुझे इस कार्य को पूरा
करने की स्वीकृति देते हुए जो सौहार्दपूर्ण व्यवहार किया उसके लिए में उनके
प्रति हृदय से समादर प्रकट करता हूँ ।
T
CC-0. RORI. Digitized by Sri Muthulakshmi Research Academy
मुझे एक दिन बड़े ही ग्रात्मीय भाव से उनके व्याख्यान की टिप्पणियां लेकर
सुरक्षित रखने एवं अवकाश में कभी उनको पढ़ने और समझने का ग्राग्रह
किया । अतः जो कुछ मेरे पल्ले पड़ता उसको मैं टीपता रहता था । बीच-बीच
में कभी शास्त्रीजी विनोद में कह देते "लिखल्यो, बोराजी म्हाराज, कदे म्हाँकी
बातां याद श्रावली !" और वास्तव में मुझे अब उनकी बातें याद आती हैं,
परन्तु समाधान किसके पास जाकर करू ? शरणजी भी नहीं रहे ! मेरे जैसे
को कौन अब समझाने बैठेगा ? अस्तु -
ऊपर के अनुच्छेदों में देवी, महिष और महिषासुरवध की जो विवेचना की
गई है वह उन्हीं टिप्पणियों के आधार पर है। शरणजी की तो पृष्ठभूमि मजबूत
थी; उन्होंने तो कई रूपों में उस चर्चा को पल्लवित किया है; में तो इससे
अधिक और क्या कर सकता था ? अतः इस अवसर पर उन दोनों दिवङ्गत
प्रात्माओं के प्रति में श्रद्धाप्रपूरिताञ्जली अर्पित करता हूँ । ।
१६५० ई० में राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान की स्थापना के दिन से
किं वा उससे भी कुछ दिन पहले से ही में महामनीषी मुनि श्रीजिन विजयजी
महाराज के संपर्क में रहा हूं और उन्हीं के सम्मान्य सञ्चालकत्व मे मैंने इस
प्रतिष्ठान की सेवा में अपने कार्यकाल के अधिकतम (१७) वर्ष व्यतीत किए
हैं । यह श्रीमुनिजी की ही सत्कृपा का फल है कि मेरा जैसा सामान्य योग्यता-
वाला जन भी इस चिरिस्थायिनी अक्षर-सम्बद्धा प्रवृत्ति में प्रवेश पाकर प्रासाद-
शिखरस्थ गरुड़ों की पंक्ति के आसपास स्थान पा गया । श्रीमुनिजी ने ही मेरा
हौसला बढाकर मेदपाटेश्वर महाराणा कुम्भकर्णकृत चण्डीशतकवृत्ति जैसे पाण्डित्य-
पूर्ण ग्रन्थ के कार्य में मुझे संलग्न किया और समय-समय पर श्रावश्यक सुझाव देकर
एवं यथाशक्य पाठसंशोधनादि कार्य में प्रानेवालो ग्रन्थियों को
सुलझा कर
उपकृत किया है। मुनिजी का व्यक्तित्व महान् है; में जब जब भी विभागीय
प्रशासनिक अथवा शैक्षणिक समस्याएं लेकर उनके सामने उपस्थित हुआ
तो मैंने सदा ही उनके निर्णय, सूझ और तत्परता में महानता के दर्शन किए हैं ।
में उनके प्रति आभार प्रकट करूँ या धन्यवाद अर्पित करूं तो यह सब श्रीपचा-.
रिकता मात्र मानी जायगी। मैं तो केवल इतना ही कह सकता हूँ "मान्यवर !
आपने मुझे यह कार्य सौंपा था, जैसा बन पड़ा वैसा पूरा किया; आगे आप जानें । "
प्रतिष्ठान के वर्तमान निदेशक डॉ. फतहसिंहजी ने मुझे इस कार्य को पूरा
करने की स्वीकृति देते हुए जो सौहार्दपूर्ण व्यवहार किया उसके लिए में उनके
प्रति हृदय से समादर प्रकट करता हूँ ।
T
CC-0. RORI. Digitized by Sri Muthulakshmi Research Academy