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पृ० ४० पर-
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तथा च हरिववार्तिकम्
[ ४० ]
"प्रअसाधुरनुमानेन वाचक: कैश्चिदिष्यते ।
वाचकत्वाविशेपेषेऽपि नियमः पापपुण्ययोः ॥"
उक्त दोनों ग्रंथों के विषय में बहुत कुछ तलाश और पूछताछ करने परभो
भी
कोई सूत्र हाथ नहीं लगा । हरिबावार्तिक के बारे में यद्यपि स्पष्ट रूप से नहीं कहा
जा सकता कि यह महाराणा कुम्भकर्ण की ही कृति है अथवा किसी अन्य की,
परन्तु दर्शनसंग्रह को तो उनके 'मदीय' का प्रमाणपत्र प्राप्त है, इसमें शङ्का को
कोई अवसर ही नहीं मिलता। यदि ये दोनों ग्रन्थ भी महाराणा की कृतियाँ हैं तो
उनके रचित साहित्य कीभृशृङ्खला में ये दो कड़ियाँ और जुड़ जाती हैंहै। प्राआशा
है, प्राचीन साहित्यानुसन्धानपरायण विद्वान् इनकी प्रतियों का सुराग लगाने की
भी चेष्टा करेंगे ।
महाराणा कुम्भकर्ण की सामरिक, राजनीतिक, निर्माण -सम्बन्धी प्रवृत्तियों
एवं उपलब्धियों पर विद्वानों ने यथावसर विवेचन किए हैं । यहाँ चण्डीशतकवृत्ति
के प्रसंग में साहित्य-रचना को लेकर उनकीप्रअक्षरसम्बद्धा चिरस्थायिनी निरपा-
यिनी कीर्ति का एतावन्मात्र यावच्छक्य विवरण हीप्रअलं होगा । अब, कुछ
विचारवान् मित्रों की यह शङ्का समाधेय है कि इतने राजनीतिक मसलों
के हल में व्यस्त, राज्य के चतुर्दिक्कुसीमासंस्थानों पर सामरिक समायोजना में
संलग्न और विविध स्थानों पर देवालय, राजप्रासाद, परिखा, प्रतोली एवं गगन-
चुम्बी उन्नतशिरस्कन्ध कीर्तिस्तम्भों के निर्माण में निरत महाराणा को इन
विविध विद्याविलसित ग्रन्थों की रचना के लिए समय कहाँ से मिला होगा ?
उनका मत है कि निस्सन्देह, महाराणा के 'अर्थदास' और खुशामदी पण्डितों ने
इन ग्ररंथों को रच- रच कर उसके नाम से प्रसिद्ध किये हैं। किसी अंश में यह बात
सच हो सकती है परन्तु यह नहीं कहा जा सकता कि महाराणा सर्वथा विद्या-
विमुख थे और इन विशिष्ट अमर रचनाओं के प्रणयन के मूल में उनकी अभि-
रुचि और प्रेरणा बिलकुल न रही हो अथवा इनकी रचना में उनका स्वयं का
योग न रहा हो या इनको सुनने-समझने की उनमें क्षमता ही न हो । रत्नगर्भा
भारतभूमि ने समय-समय पर ऐसे नरपतिरत्नों को प्रकट किया है जो शस्त्र और
शास्त्रविद्याओं में समानरूप से सत्ताधारी हुए हैं। रणरसिक और साथ ही
विद्याओं तथा कलाओं के प्रेमी महाराणा के लिए यह असम्भव नहीं कहा जा
सकता किश्रअन्यान्य प्रवृत्तियों में व्यस्त जीवन बिताते हुए भी वे अपनी सहज
सौ
और उन्नत अभिरुचि के पूर्त्यर्थ समय न निकाल पाते हों । सारंग व्यास, कन्ह
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तथा च हरि
[ ४० ]
"
वाचकत्वाविशे
उक्त दोनों ग्रंथों के विषय में बहुत कुछ तलाश और पूछताछ करने पर
कोई सूत्र हाथ नहीं लगा । हरि
जा सकता कि यह महाराणा कुम्भकर्ण की ही कृति है अथवा किसी अन्य की,
परन्तु दर्शनसंग्रह को तो उनके 'मदीय' का प्रमाणपत्र प्राप्त है, इसमें शङ्का को
कोई अवसर ही नहीं मिलता। यदि ये दोनों ग्रन्थ भी महाराणा की कृतियाँ हैं तो
उनके रचित साहित्य की
है, प्राचीन
भी चेष्टा करेंगे ।
महाराणा कुम्भकर्ण की सामरिक, राजनीतिक, निर्माण
एवं उपलब्धियों पर विद्वानों ने यथावसर विवेचन किए हैं । यहाँ चण्डीशतकवृत्ति
के प्रसंग में साहित्य-रचना को लेकर उनकी
यिनी कीर्ति का एतावन्मात्र यावच्छक्य विवरण ही
विचारवान् मित्रों की यह शङ्का समाधेय है कि इतने राजनीतिक मसलों
के हल में व्यस्त, राज्य के चतुर्दि
संलग्न और विविध स्थानों पर देवालय, राजप्रासाद, परिखा, प्रतोली एवं गगन-
चुम्बी उन्नतशिरस्कन्ध कीर्तिस्तम्भों के निर्माण में निरत महाराणा को इन
विविध
उनका मत है कि निस्सन्देह, महाराणा के 'अर्थदास' और खुशामदी पण्डितों ने
इन ग्
सच हो सकती है परन्तु यह नहीं कहा जा सकता कि महाराणा सर्वथा विद्या-
विमुख थे और इन विशिष्ट अमर रचनाओं के प्रणयन के मूल में उनकी अभि-
रुचि और प्रेरणा बिलकुल न रही हो अथवा इनकी रचना में उनका स्वयं का
योग न रहा हो या इनको सुनने-समझने की उनमें क्षमता ही न हो । रत्नगर्भा
भारतभूमि ने समय-समय पर ऐसे नरपतिरत्नों को प्रकट किया है जो शस्त्र और
शास्त्रविद्याओं में समानरूप से सत्ताधारी हुए हैं। रणरसिक और साथ ही
विद्याओं तथा कलाओं के प्रेमी महाराणा के लिए यह असम्भव नहीं कहा जा
सकता कि
सौ
और उन्नत अभिरुचि के पूर्त्यर्थ समय न निकाल पाते हों । सारंग व्यास, कन्ह
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