2023-03-13 20:11:17 by manu_css
This page has been fully proofread once and needs a second look.
३८ ]
T
पञ्चाशिकाऽ
दुर्गाम्बिकाद्
को
कौम्भे पुरे धातुनि
स्
कुम्भश्रिये कन्हकृता (:) सुवृत्ता (:) ॥१६२॥
एकलिङ्गमाहात्म्य में राजवर्णन प्रकरण की समाप्ति के उपरान्त पञ्चा-
यतनस्तुति लिखी है जिसके प्रथम दो श्लोक इस प्रकार
ध्यात्वा श्रीगणनायकं भगव
स्मृत्वा
कृत्वा भारतशास्त्रसारचतुरं सङ्गीतराजं नवं
श्
छन्दोभिः सुमनोहरः
र्वर्णै: प्रासविभूषितैर्यतिलयस्वस्थानसंवेशि
ताले कुत्रचिदीप्सिते कविरि
घु
धुर्यः कोऽपि सुकाव्यकार
प्रथम पद्य से सूचना मिलती है कि भरतमतानुसार नवीन सङ्गीतराज की
रचना करके कुम्भनरेश्वर वाद्यप्रबन्धों की रचना करता है। दूसरे पद्य में कहा
गया है कि यति, लय, ताल, अनुप्रास और अपने-अपने स्थान पर संवेशित वर्णों
से युक्त प्रबन्धों को सुकाव्यरचनाकार कवि नृपति बांधता है
पद से ऐसा अर्थ निकाला जा सकता है कि पहले से कोई सङ्गीतराज मौजूद है
और अब कुम्भकर्ण ने यह 'नया
से प्रणेता का अर्थ संगीतशास्त्रीय पूर्वग्रन्थों से है । पाठ्यरत्नकोश के
भी (पद्य ४० में) 'सङ्गीतराजोऽन्वहम्' पद प्रयुक्त हुआ है, परन्तु इससे पूर्व प्राय:
सभी संगीताचार्यों एवं संगीत
है कि यह नवीन सङ्गीतराज अर्थात् सङ्गीतशास्त्र विषयक नवीन ग्रंथ स
ग्रंथों का आधार लेकर रचा गया है। दूसरी बात वाद्यप्रबन्धों की है। इससे
ऐसा ज्ञात होता है कि सङ्
पृथक् रचना रची गई है, जो उपलब्ध नहीं हो रही है
कि इन पद्यों में 'प्रबन्ध' शब्द, यति, लय, प्रास आदि के अनुसार बन्दिश किए
हुए 'गेय पद्य' के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है क्योंकि इन दोनों पद्यों के आगे गणेश,
सूर्य, नारायण (विष्णु), शिव और चण्डिका की स्तुति में विविध छन्दों को यति
CC-0. RORI. Digitized by Sri Muthulakshmi Research Academy