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श्रीकुम्भदत्तसर्वार्था [गीत] गोविन्दसत्पथा

पञ्चाशिकाऽयंर्थदासेन कम्न्हव्यासेन कीर्तिता ॥
 

 
दुर्गाम्बिकाद्वीरौ जयमालदुर्गे,
 
को

कौ
म्भे पुरे धातुनिधीधौ समुद्रे

स्तावाच्चंड (द्र) चूडस्तुतिचन्द्रकान्ता (:)
 

कुम्भश्रिये कन्हकृता (:) सुवृत्ता (:) ॥१६२॥
 

 
एकलिङ्गमाहात्म्य में राजवर्णन प्रकरण की समाप्ति के उपरान्त पञ्चा-

यतनस्तुति लिखी है जिसके प्रथम दो श्लोक इस प्रकार हैहैं-
-
 
ध्यात्वा श्रीगणनायकं भगवतीतीं देवीं तथा भारतीं,

स्मृत्वा [वै] भरतादिकान् मुनिवरान् सङ्गीतविद्यागुरुरून् ।

कृत्वा भारतशास्त्रसारचतुरं सङ्गीतराजं नवं

श्रीरोमान् कुम्भनरेश्वरः प्रकुरुते वाद्यप्रन्धान् सुधीः ॥ १॥
 

 
छन्दोभिः सुमनोहरः (रं:रैः) श्रवणयो:योः पीयूषवाधारोत्करै-

र्
वर्णै: प्रासविभूषितैर्यतिलयस्वस्थानसंवेशितः,
तैः,
ताले कुत्रचिदीप्सिते कविरि [ह] प्राय: प्रन्धान् सुधी-
घु

धु
र्यः कोऽपि सुकाव्यकारनुनृपतिबंर्बध्नाति बन्धोद्धुरान् ॥ २॥
 

 
प्रथम पद्य से सूचना मिलती है कि भरतमतानुसार नवीन सङ्गीतराज की

रचना करके कुम्भनरेश्वर वाद्यप्रबन्धों की रचना करता है। दूसरे पद्य में कहा

गया है कि यति, लय, ताल, अनुप्रास और अपने-अपने स्थान पर संवेशित वर्णों

से युक्त प्रबन्धों को सुकाव्यरचनाकार कवि नृपति बांधता है । 'नवं सङ्गीतराजं?
'
पद से ऐसा अर्थ निकाला जा सकता है कि पहले से कोई सङ्गीतराज मौजूद है

और अब कुम्भकर्ण ने यह 'नया संगीतराज' बनाया है, परन्तु यहाँ 'सङ्गीतराज'

से प्रणेता का अर्थ संगीतशास्त्रीय पूर्वग्रन्थों से है । पाठ्यरत्नकोश के प्रारम्भ में

भी (पद्य ४० में) 'सङ्गीतराजोऽन्वहम्' पद प्रयुक्त हुआ है, परन्तु इससे पूर्व प्राय:

सभी संगीताचार्यों एवं संगीत -प्रबन्धों को गिनाया गया है और यही कहा गया

है कि यह नवीन सङ्गीतराज अर्थात् सङ्गीतशास्त्र विषयक नवीन ग्रंथ सभोभी पूर्व-

ग्रंथों का आधार लेकर रचा गया है। दूसरी बात वाद्यप्रबन्धों की है। इससे

ऐसा ज्ञात होता है कि सङ्गोगीतराज की रचना के बाद कोई 'वाद्यप्रबन्ध' नामक

पृथक् रचना रची गई है, जो उपलब्ध नहीं हो रही है । परन्तु ऐसा लगता है

कि इन पद्यों में 'प्रबन्ध' शब्द, यति, लय, प्रास आदि के अनुसार बन्दिश किए

हुए 'गेय पद्य' के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है क्योंकि इन दोनों पद्यों के आगे गणेश,

सूर्य, नारायण (विष्णु), शिव और चण्डिका की स्तुति में विविध छन्दों को यति
 
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