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है । कामप्र
विविध गुटकों में उतार लिए गए होंगे ।
इनके अतिरिक्त
क्रमदीपिका, एकलिङ्गाश्रय, (नवीन) गीतगोविन्द, कुम्भस्वामिमन्दार (
भी उल्लेख किया है, जिनका विवरण उनकी संगीतराज पर लिखी भूमिका में
द्रष्टव्य है ।
वास्तुशास्त्रसम्बन्धी महाराणाविरचित प्रबन्ध का सूचन स्व. म. म.
गौरीशङ्कर हीराचन्द
ग्रन्थ जय और अपराजित-मतानुसार कीर्तिस्तम्भों की रचना के विषय में है जो
शिला
शिला का प्रारम्भिक अंश उदयपुर के संग्रहालय में सुरक्षित है । इसकी निम्न-
पंक्तियों से परिचय स्पष्ट हो जाता है
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(१) स्वस्ति श्रीमत्सकल
(२) कवेश्चारुसंगीतदेव्याः । सांद्रानन्दं दिशतु वि•••कमूर्ति
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(३) क्ष्मीवक्षःस्थकमलिनीकोश
(४) माचार्यमुत्प•••विधामुपास्य । स्तम्भस्य लक्ष्मातनुते नृपालः श्रीकुंभ
(५) यभाषितेन ॥२॥ जयापराजित
ब्रह्मण-
स्वर्गीय
में संकलित देवता-स्तुतियाँ महाराणा कुम्भकर्णप्रणीत
और तालों में गाई जाती हैं। वस्तुतः सम्पूर्ण एकलिङ्ग माहात्म्य (
उदयपुर
कूट एवं कुम्भलगढ़ की प्रशस्तियों में से ज्यों के त्यों लिए गए हैं। पुस्तक के
अन्तिम भाग में पञ्चायतनदेव
प्रस्तुत संस्करण के पृ. १५९-१६० पर उद्धृत है
जायगा कि इनका प्रणेता 'अर्थदास' कन्हव्यास है जो सम्भवतः
राणा व उनके इष्टदेवताओं की स्तुतियाँ
यथा-
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