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प्रति मिल गई, जिसमें गीतगोविन्द तो पृ० ३२ पर समाप्त हो जाता है और
श्रा

गे ६ पत्रों में सूडप्रबन्ध प्राप्त है। इस प्रति के हाशिये पर गीतगोविन्द के

पदों के भी नालाप-टिप्पण श्रादि लिखे हुए हैं
 

 
छठे सर्ग के श्रारम्भ में यह श्लोक दिया है -
 
-
 
श्रीकुंभकरणंर्णनृपतितिलको गीतगोविन्दे ।
 

गीतं विशेषं तनुते तनुतेजा रसमिते सर्गे ॥ १॥
 

 
इसी प्रकार सातवें से बारहवें सर्गों के प्रारम्भ में भी उन्होंने मुद्रित प्रति

से अधिक श्लोक होना लिखा है, परन्तु ७वें, ८वें और १२वें सर्गों के प्रारम्भ

में तो मुद्रित प्रति में वही श्लोक हैं जो उन्होंने उद्धृत किए हैं, शेष ε९, १०, ११

सर्गों वाले पद्य उदयपुर शाखा कार्यालय के गुटके में प्राप्त हैं जिनका ऊपर

उल्लेख किया गया है । इसके अतिरिक्त श्री नाहटाजी की निम्न सूचना भी

महत्वपूर्ण है कि सूडप्रबन्ध में प्राचीन संगीताचार्यों के नाम देते हुए महाराणा

ने सारङ्ग व्यास के विषय में लिखा है 'श्री सारंगव्यासात् सम्यगधीत्ये ।' इस

से ज्ञात होता है कि सारंग व्यास उनके संगीतगुरु थे और संगीतराज, संगीत-

मीमांसा गीतगोविन्दटीका श्रौर गीतगोविन्द को ही प्राधार बना कर सूड-

प्रबन्धादि ग्रन्थों की रचना में उनका योग अवश्य रहा होगा । गीतगोविन्द
मोर सु

और सू
डप्रबन्ध का रचनासमय निम्नपुष्पिका के अनुसार वैशाख शु० १३

संवत् १५०५ है-

 
"श्रीविक्रमाकंस र्कसमयातीतपञ्चोत्तरपञ्चदशशते संवच्छरे पुष्यसमयऋतो
तौ
माघवे मासि सिते पक्षे त्रयोदश्यां तिथी
 
?
 
थौ ।'
 
श्रीगोविन्दस्तवो मातु जयंदेवस्य धीमत (:)

श्री कुम्भकर्णोदितो धातु प्श्रमृतं फिकिमतष्प्परम् ॥
 

 
इति श्रीगोगीतगोविन्दप्रबन्धराजश्रीसूड क्रमनामा श्री प्रबन्धस्सम्पूर्णः । इति

श्रीगीतगोविन्दशास्त्रं परिपूर्णम् ॥६॥ लिखितं श्रीहर्षरत्नमिश्र (:) स्वकौतु-

कार्थम् ॥ श्री ॥ "
 

 
इससे यह निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं कि (१) महाराणा के विद्यामण्डल

में संगीतगुरु सारङ्ग व्यास का प्रमुख स्थान था, (२) सूडप्रबन्ध गीतगोविन्द

पर ही एक अतिरिक्त प्रबन्ध के रूप में रचा गया है, और इनकी रचना

संवत् १५०५ में हुई है । सूडप्रबन्ध गीतगोविन्द को टीका के ही अनुक्रम में

लिखा गया था, इसके प्रसारमाण में यह श्लोक भी द्रष्टव्य है:-
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