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तनिक-सी तनतनाहट के भी ढेरों ढिढोरे पीटना । ब्रिटिश-काल के इतिहास-
लेखकों ने भी प्राय: मुस्लिम लेखकों का ही माश्रय ग्रहण किया है और फारसी
से इतर स्रोतों को टटोलने का बहुत कम अथवा सर्वथा नगण्य प्रयास किया है ।
यही कारण है कि महाराणा कुम्भा के जेसा पृथुपराक्रमी, स्वधर्म-संरक्षक, कला-
विलासी, साहित्य- सोहित्यवान् व्यक्तित्व भी उनकी गजनिमीलिका के कारण
उपेक्षित-सा ही रहा; अन्य श्रोनों-कोनों में जो प्रतिभाएं चमकीं उनके बारे में
तो कहा ही क्या जा सकता है ? अस्तु -
अब कुछ समय से विद्वानों का ध्यान इस ओर गया है और स्वदेश के ऐसे-
ऐसे विशिष्ट व्यक्तियों का समुचित मूल्यांकन करने, अज्ञात कृतियों को प्रकाश
में लाने और मुस्लिम एवं मुगलकालीन इतिहास-पुस्तकों के दायरे से निकल कर
अन्य स्रोतों का संशोधन करने में भी विपश्चिद्वृन्द संलग्न होने लगे हैं ।
महाराणा कुंभकर्णकृत गीतगोविन्द की टीका रसिकप्रिया तो बहुत पहले
ही निर्णयसागर प्रेस से प्रकाशित हो गई थी । सन् १९१७ ई० में तो इसका
पञ्चम संस्करण निकल चुका था, परन्तु इसमें भी सम्पादक महोदय ने टीका-
कार कुम्भकर्ण के विषय में केवल इतना ही लिख कर विराम कर लिया है-
'एतट्टीकाकर्ता श्रीकुम्भनृपतिस्तु सम्प्रति लोके 'मेवाड़' इति नाम्ना प्रसिद्धे मेद-
पाटदेशे राज्यं चकारेति टीकावतरणिकात एव ज्ञायते । अस्य राज्यसमयस्तु
ख्रिस्तसंवत्सरस्य चतुर्दशशतकस्य प्रथमपाद श्रासीदितोतिहासतोऽवगम्यते ।' बस ।
इसके बाद १९४६ ई० में बीकानेर के महाराजा द्वारा संस्थापित गङ्गा-
प्राध्यग्रंथमाला (Ganga Oriental Series) में डॉ० कुन्हन राजा द्वारा सम्पा-
दित संगोतराज का प्रथम रत्नकोश 'पाठ्यरत्नकोश' प्रकट हुआ । इस प्रकाशन
के प्राक्कथन में स्मरणीय विद्वान् सम्पादक ने महाराणा के कृतित्व और व्यक्तित्व
पर अपेक्षित प्रकाश डाला है और इससे अन्य शोध-विद्वानों का ध्यान भी इस
ओर आकृष्ट हुआ है। समय-समय पर महाराणा की रचनाओं आदि के विषय
में लेखों से पत्र-पत्रिकाओं के स्तम्भ अलंकृत होने लगे हैं। इससे पूर्व १६३२ ई०
में स्व० हरबिलासजी शारदा ने महाराणा के विषय में बहुत उपयोगी पुस्तक
लिख कर प्रकाशित कराई जिसमें उनके राजत्व, योद्धृत्व और वैदुष्य प्रादि सभी
पहलुओं पर विशद विवेचन किया गया है । सन् १९६३ ई० में राजस्थान के
सुविख्यात साहित्यान्वेषक श्री अगरचन्दजी नाहटा ने शार्दूल राजस्थानी रिसर्च
इंस्टीट्यूट, बीकानेर के तत्वावधान में 'कुम्भा-प्रासन' की स्थापना कराई मोर
'राजस्थान भारती' का 'महाराणा कुम्भा विशेषाङ्क' प्रकट करके उसमें महाराणा-
T
CC-0. RORI. Digitized by Sri Muthulakshmi Research Academy
तनिक-सी तनतनाहट के भी ढेरों ढिढोरे पीटना । ब्रिटिश-काल के इतिहास-
लेखकों ने भी प्राय: मुस्लिम लेखकों का ही माश्रय ग्रहण किया है और फारसी
से इतर स्रोतों को टटोलने का बहुत कम अथवा सर्वथा नगण्य प्रयास किया है ।
यही कारण है कि महाराणा कुम्भा के जेसा पृथुपराक्रमी, स्वधर्म-संरक्षक, कला-
विलासी, साहित्य- सोहित्यवान् व्यक्तित्व भी उनकी गजनिमीलिका के कारण
उपेक्षित-सा ही रहा; अन्य श्रोनों-कोनों में जो प्रतिभाएं चमकीं उनके बारे में
तो कहा ही क्या जा सकता है ? अस्तु -
अब कुछ समय से विद्वानों का ध्यान इस ओर गया है और स्वदेश के ऐसे-
ऐसे विशिष्ट व्यक्तियों का समुचित मूल्यांकन करने, अज्ञात कृतियों को प्रकाश
में लाने और मुस्लिम एवं मुगलकालीन इतिहास-पुस्तकों के दायरे से निकल कर
अन्य स्रोतों का संशोधन करने में भी विपश्चिद्वृन्द संलग्न होने लगे हैं ।
महाराणा कुंभकर्णकृत गीतगोविन्द की टीका रसिकप्रिया तो बहुत पहले
ही निर्णयसागर प्रेस से प्रकाशित हो गई थी । सन् १९१७ ई० में तो इसका
पञ्चम संस्करण निकल चुका था, परन्तु इसमें भी सम्पादक महोदय ने टीका-
कार कुम्भकर्ण के विषय में केवल इतना ही लिख कर विराम कर लिया है-
'एतट्टीकाकर्ता श्रीकुम्भनृपतिस्तु सम्प्रति लोके 'मेवाड़' इति नाम्ना प्रसिद्धे मेद-
पाटदेशे राज्यं चकारेति टीकावतरणिकात एव ज्ञायते । अस्य राज्यसमयस्तु
ख्रिस्तसंवत्सरस्य चतुर्दशशतकस्य प्रथमपाद श्रासीदितोतिहासतोऽवगम्यते ।' बस ।
इसके बाद १९४६ ई० में बीकानेर के महाराजा द्वारा संस्थापित गङ्गा-
प्राध्यग्रंथमाला (Ganga Oriental Series) में डॉ० कुन्हन राजा द्वारा सम्पा-
दित संगोतराज का प्रथम रत्नकोश 'पाठ्यरत्नकोश' प्रकट हुआ । इस प्रकाशन
के प्राक्कथन में स्मरणीय विद्वान् सम्पादक ने महाराणा के कृतित्व और व्यक्तित्व
पर अपेक्षित प्रकाश डाला है और इससे अन्य शोध-विद्वानों का ध्यान भी इस
ओर आकृष्ट हुआ है। समय-समय पर महाराणा की रचनाओं आदि के विषय
में लेखों से पत्र-पत्रिकाओं के स्तम्भ अलंकृत होने लगे हैं। इससे पूर्व १६३२ ई०
में स्व० हरबिलासजी शारदा ने महाराणा के विषय में बहुत उपयोगी पुस्तक
लिख कर प्रकाशित कराई जिसमें उनके राजत्व, योद्धृत्व और वैदुष्य प्रादि सभी
पहलुओं पर विशद विवेचन किया गया है । सन् १९६३ ई० में राजस्थान के
सुविख्यात साहित्यान्वेषक श्री अगरचन्दजी नाहटा ने शार्दूल राजस्थानी रिसर्च
इंस्टीट्यूट, बीकानेर के तत्वावधान में 'कुम्भा-प्रासन' की स्थापना कराई मोर
'राजस्थान भारती' का 'महाराणा कुम्भा विशेषाङ्क' प्रकट करके उसमें महाराणा-
T
CC-0. RORI. Digitized by Sri Muthulakshmi Research Academy