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पुस्तक में कुम्कर्णकृत वृत्ति को 'कुं. वृ.,' जयपुर वाली संक्षिप्त व्याख्या को

'सं. व्या.' तथा पादटिप्परगोणी में उसी को 'ज०' और काव्यमाला वाली पुस्तक को

का. संकेतों से व्यक्त किया गया है ।
 

 
मुद्रण चालू हुआ और पाठ-मीलान, पाठान्तर, टिप्पण एवं प्रूफ-संशोधन

आदि मेरे दैनिक कार्यालयीय कार्य का अंग बन गए । अप्रेल, १९६७ तक १०४

पृष्ठों का ही मुद्रण हो सका था; मई, जून में मेंमैं अवकाश पर रहा और १

जुलाई से राजस्थान -राजकीय नवीन नियमानुसार पचपन वर्ष से अधिक प्रायु

होने के कारण मैं सरकारी सेवा से निवृत्त हो गया । संयोग की बात है कि उसी

तिथि से श्रीमुनिजी भी सम्मान्य संचालक पद से निवृत्त हो गये । नव-नियुक्त

निदेशक डॉ० फतहसिंहजी ने अगस्त मास में मुझे इस कार्य को पूरा करने के

लिए निदेश भेजा । तदनुसार आगे का कार्य मैंने इन ४ मास में पूरा किया है ।
 
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पुस्तक का मुद्रण समाप्त हो जाने और इस 'प्रास्ताविक परिचय' का

श्रा
लेख तैयार हो जाने पर मुझे मेरे भानजे श्रोरीसच्चिदानन्द जोशी, सांभर-

निवासी ने चण्डिकाशतकावचूर्णि की एक प्रति दिखाई । इस प्रति का प्रथम पत्र

अप्राप्त है । पृ० २ (a) पर १वें श्लोक की अन्तिम पंक्ति के इस अंश से

आरम्भ है—.......--'••••••त्या विमतिविहतये तर्किता स्ताज्जया वः ॥ ९॥' पत्र ॥ पत्र ६ के

(a ) भाग पर कृति समाप्त हो जाती है। लिपिकाल, लिपिस्थान तथा लिपि-

कर्ता का नाम नहीं दिया है, परन्तु लिपि और कागज को देख कर लगता है

कि यह १६वीं शताब्दी की पञ्चपाठ शैली में लिखी हुई शुद्ध प्रति है। बीच में

मूल श्लोक और चारों ओर हाशियों पर सूक्ष्माक्षरों में प्रवचूरिंगर्णि लिखी है

लेखन में पड़ी मात्राओं का ही प्रयोग अधिक है। लगता है, किसी जैन लिपिकार

की लिखी प्रति है । श्रवचूरिंग का विवरण तो यहां देना आवश्यक नहीं है,

परन्तु इतना कहना पर्याप्त होगा कि संक्षिप्त और शुद्ध सरलार्थ संकेत इसमें

दिए गए हैं । मूल श्लोकों का पाठ मीलान करने पर यत्र-तत्र ही पाठान्तर मिले,

जो अधिक महत्वपूर्ण नहीं हैं । मुख्य उल्लेखनीय बात यह है कि इस प्रति में

१०४ श्लोक हैं जब कि प्रतिष्ठान की कुम्भकर्णकृतवृत्ति वाली में १०१ और अन्य

समस्त चर्चित प्रतियों में १०२ श्लोक ही मिलते हैं । ये दो विशेष श्लोक

१०२ और १०३ संख्या पर दिये हुए हैं । १०४था श्लोक वही है जो अन्य

प्रतियों में १०२रा है औौर कुं. वृ. में दिया ही नहीं गया है । इस प्रति में

अन्तिम चार श्लोकों की वचूरिंगर्णि नहीं है । १०० वें श्लोक की अवचूर्णि के बाद

यह लिख कर समाप्त की गई है : – '--ऽग्रेतनकाव्यत्रयी वृत्तावपि नास्तीति न
 
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