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इस प्रति की उपलब्धि श्रीमुनिजी महाराज के लिए सन्तोष और प्रकाशन-

प्रेरणा का कारण हुई । विभागीय रूप से ही इसका सम्पादन करना - -कराना तय

हुआ और तदनुसार विभागीय सर्वेयरों एवं प्रतिलिपिकर्ताओं से इसकी नकल

कराई गई, जिसमें बहुत समय लग गया क्योंकि कभी किसी का स्थानान्तरण हो

जाता तो कभी कोई अवकाश पर चला जाता । इस प्रकार समय भी बहुत लगा

और प्रेस -कापी में एकरूपता भी नहीं रही । यद्यपि मूल प्रति के लिपिकर्ता

स्वयं बड़े विद्वान् और अनेक ग्रन्थों के लेखक थे श्रीर प्रति भी प्रायः शुद्ध और

स्पष्ट है फिर भी प्रतिलिपिकर्ताओं को की असमान योग्यता और रुचि की मात्रा में

न्यूनाधिकता के कारण प्रेसकॉपी ऐसी तैयार नहीं हो सकी कि जिससे सन्तोष करके

उसको तुरन्त ही प्रेस में दे दिया जाता । तब श्रीमुनिजी ने मुझे इस प्रेसकॉपी

का मूल से मीलान करने का काम दिया । कार्यालयीय प्रन्य दैनन्दिन कार्यों से

जैसे-जैसे अवकाश मिलता, मेंमैं इस कार्य को भी करता रहा । बीच में, जयपुर-

स्थित प्रतिष्ठान के शाखा कार्यालय में जाना हुआ तो वहां 'महाराजा पब्लिक

लायब्रेरी' से श्राये हुए संग्रह में भी चण्डीशतक पर प्रज्ञातकर्तृक संक्षिप्त व्याख्या

की एक प्रति मिल गई, जो मुझे सरल और सुबोध लगी । इस प्रति का विवरण

इस प्रकार है :
 
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ग्रंथ संख्या ९; माप ३५.८x१२.८ से. मी.; पत्र सं. ४९; प्रतिपृष्ठ

पंक्ति १०; प्रतिपंक्ति अक्षर ४८; लिपि संवत् १९४२ । कहीं-कहीं पर पार्श्व में

पाठान्तर भी दिए गए हैं । लेख की शुद्धता सामान्य है ।
 

 
जब यह प्रति श्री सम्मान्य संचालकजी को दिखाई गई तो उन्होंने इसकी

भी प्रतिलिपि करके सम्पादन में सम्मिलित कर लेने का आदेश दिया। तदनुसार

मैंने यथावकाश इसकोकी प्रतिलिपि तैयार कर ली ।
 
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चण्डीशतक का प्रकाशन काव्यमाला के चतुर्थ गुच्छक में हो चुका है, जिसमें

म. म. दुर्गाप्रसाद और काशीनाथ परब महोदय ने, धनेश्वर एवं प्रज्ञातकर्त क
तृक
टीकानोंओं के आधार पर स्वल्प टिप्पण एवं अनेक उपयोगी पाठान्तर भी दिए हैं।

नया संस्करण तैयार करने में इस पुस्तक का सहारा भी आवश्यक था इसलिए

उक्त दोनों हस्तलिखित प्रतियों एवं काव्यमाला की मुद्रित पुस्तक को आधार

बना कर कार्य आरम्भ किया गया ।
 

 
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तरगच्छोयवाछीयचनाचार्यश्रीज्ञान विमलग रिण णिशिष्य पण्डित श्रीवल्लभगरिणणिगविरचिता चेयम् ॥ श्रीरस्तु ॥ !

यह द्रष्टव्य है कि इन्हीं उपाध्याय ने प्रस्तुत चण्डीशतकवृत्ति की प्रतिलिपि भी इसी'

( १६५५) वर्ष में की थी ।
 
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