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मुख्यवाचनाचार्यधूर्यवर्य श्री श्री श्री सुखनिधानगणिवराणाम् शिष्य पंडितसकल-
की
प्रति के कलेवर का परिचय इस प्रकार है-
२८ ]
"जैनभवन प्रति नं० १५२
पंक्ति १७, अक्षर ५१, अन्तिम पत्र में पंक्ति ११, दूसरी तरफ रिक्त ।"
इस सूचना के अनन्तर व
उत्प
में यहां के तत्कालीन सम्मान्य संचालक मुनि श्रीजिनविजयजी ने भी यहां की
सूचियों आदि का अच्छी तरह अवलोकन किया। इस संग्रह में इस वृत्ति की
दो प्रतियां उपलब्ध हुईं । एक तो संख्या १०२३९ पर, जो यहां पहले
थी । यह प्रति २०वीं शती की है और प्रायः उसी प्रति से नकल की गई लगती
है जिसका श्री नाहटाजी ने जिक्र किया है। विलुप्त अक्षरों के स्थान रिक्त छूटे
हुए हैं और इसके आधार पर पाठ का अनुसन्धान करने में अनुमान का ही
आश्रय अधिक लेना पड़े, ऐसी स्थिति है । इस प्रति की माप सेण्टीमीटरों में
२७.७
पत्र संख्या केवल १० है
दूसरी प्रति सं. १७३७६ पर मिली जो प्राचीन, पूर्ण, शुद्ध और स्पष्ट है
इसका विवरण इस प्रकार है :-
-
प्रतिपृ
प्रतिवृष्ठ पंक्ति १७; प्रतिपंक्ति अक्षर ५१; लिपिसंवत् १६५५ वि०; लिपि-
कर्ता
यह नाहटाजी को प्राप्त प्रति से २० वर्ष पुरानी है ।
१
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[^१] श्रीवल्लभ उपाध्याय स्वयं बड़े विद्वान् थे
प्रबोध' नाम्नी टीका तथा अभिधानचिन्ताम
प्रथम टीका
हुई थी । इन दोनों ही टीकाओं
विद्या प्रतिष्ठान के जोधपुर संग्रह में सं० ४३०५ एवं ५
ने '
प्रकार उद्धृत है-
"इति
सकलवा
T
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