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[ २७ ]
'राजस्थान भारती' का 'महाराणा कुम्भा विशेषांक' प्रकाशित हुआ; उसमें श्री
भँवरलाल नाहटा ने अपने लेख 'महाराणा कुम्भा
यह सूचना दी कि "अभी तक चण्डीशतकवृत्ति की कोई हस्तलिखित प्रति
प्राप्त नहीं हुई थी ।
प्राप्त हो गई है
की सर
प्रति को भी उसने इतनी क्षति पहुँचाई कि सारे पन्ने चिपक गए और आदि
अन्त के पत्र
श्लोक और अंत की प्रशस्ति की भी पूरी नकल नहीं की जा स
जितना अंश या जितने अक्षर पढ़े जा सके उसकी नकल आगे दी जा रही है ।
सम्भव है, खोज करने पर अन्य किसी हस्तलिखित ग्रन्थ-संग्रहालय में इसकी
पूरी और शुद्ध प्रति मिल जाय । इस महत्वपूर्ण वृत्ति का प्रकाशन अवश्य होना
चाहिए ।" इत्यादि ॥ इसके आगे प्रति के यावद्वाच्य
किया गया है । अन्तिम पुष्पिका इस प्रकार है-
-AA
"
चण्
संवत् १६७५ वर्षे ज्येष्ठ सुदी ११ तिथी सूर्यवारे । श्री श्री श्री सागरचन्द्र-
-------------------
से हुआ था
'
मुसलमान बना लिया था । कोई कहते हैं कि पहले ही अनबन हो जाने के कारण रमाबाई
पीहर में श्रा कर रहने लगी थी और कुछ लोगों का मत है कि राव के मुसलमान हो जाने के
बाद वह य
रमाकुण्ड का निर्माण कराया था जिसका शिलालेख पास ही के रामस्वामी के विष्णुमन्दिर
में लगा हुआ है ।
.
इसके अतिरिक्त '
वि० स० ) की चार में से एक पत्नी का नाम 'दे
है । इससे ज्ञात होता है कि महाराणा
सम्बन्ध था । यद्यपि कुम्भलगढ़ की प्रशस्ति में '
साथ ही इससे यह भी मालूम होता है कि उस समय ऐसा रिवाज था कि प्रबल राजपूत शासक
अपने आसपास के इलाकों पर चढ़ाइयाँ करते थे
प्रा
आपस में लड़
होगा ।
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