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और शक १३७४ दिया है
श्रीमद्विक्रमकालतः परिगते नन्दा
वर्षेऽक्षाद्
ऊर्जे मासि ति
योगे चाभिजिति स्फुटोऽयमभवत् सङ्गीत
इसी के आगे १७ वें श्लोक में लिखा है-
<error>चण्डीशश
सङ्गीतराजेन च तेन चण्डी हरिर्हरः प्रीतिमवाप्नुवन्तु ॥१७॥[^१
इससे ज्ञात होता है कि चण्डीशतक की वृत्ति की रचना वि. सं. १५०
भी पूर्व हो चुकी थी । यद्यपि कीर्तिस्तम्भ के प्रशस्ति-लेखन का संवत् १५१५ है
किन्तु स्तम्भ का निर्माण संवत् १५०५ में ही समाप्त हो चुका था[^२] और उसी
समय प्रशस्ति
ही देहान्त हो गया और उसके पुत्र महेश कवि ने उत्तरार्द्ध की रचना करके
इसको पूर्ण किया
स्थिर कर लिया होगा और यह सम्भव है कि चण्डीशतक की वृत्ति सं० १५०५
से भी पहले रची गई हो ।
महाराणा कुम्भकर्ण की सामरिक, राजनीतिक और साहित्यिक उपलब्धियों
के विषय में समसामयिक इमारतें और शिलालेखादि प्राप्त हैं, यह सौभाग्य की
बात है । इन विषयों पर संशोधक विद्वानों ने समय-समय पर पर्याप्त प्रकाश
भी डाला है; उन्हीं बातों को दोहराना यहाँ संगत नहीं होगा
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[^१
[^२
माघे मासि वलक्षपक्षदशमीदेवेज्यपुष्पागमे ।
कीर्तिस्तम्भमकारयन्नरपतिः श्रीचित्रकूटाचले
नानानिर्मित
[^३
उस
के ग्यारह पुत्रों के नाम उदयसिंह, रायमल, नगराज, गोपालसिंह, आसकरण,
गोविंददास, जैतसिंह, महरावण, क्षेत्रसिंह और अचलदास लिखे हैं। इनके
एकमात्र पुत्री रमाबाई का भी उल्लेख है, जिसका विवाह जूनागढ़ के अन्तिम राव मण्डलीक
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