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रसरत्नकोश की पुष्पिका में सङ्गीतराज की समाप्ति का संवत् १५०९ वि०
और शक १३७४ दिया है -
 
श्रीमद्विक्रमकालतः परिगते नन्दाअभूतक्षिती
वर्षेऽक्षाद्रयनले दुशाकसमये संवत्सरे च ध्रुवे
ऊर्जे मासि तिथी हरे रविदिने हस्तक्षयोगे तथा
योगे चाभिजिति स्फुटोऽयमभवत् सङ्गीत राजाभिवः ॥१५॥
इसी के आगे १७ वें श्लोक में लिखा है-
चण्डीशश (त) व्याकरणेन गीतगोविन्दवृत्त्या सुकृतं यदन ।
सङ्गीतराजेन च तेन चण्डी हरिहरः प्रीतिमवाप्नुवन्तु ॥१७॥१
इससे ज्ञात होता है कि चण्डीशतक की वृत्ति की रचना वि. सं. १५०६ से
भी पूर्व हो चुकी थी । यद्यपि कीर्तिस्तम्भ के प्रशस्ति-लेखन का संवत् १५१५ है
किन्तु स्तम्भ का निर्माण संवत् १५०५ में ही समाप्त हो चुका था और उसी
समय प्रशस्ति रचना का प्रारम्भ हो गया होगा। प्रशस्तिकार ऋत्रि का बीच में
ही देहान्त हो गया और उसके पुत्र महेश कवि ने उत्तरार्द्ध की रचना करके
इसको पूर्ण किया । फिर भी, प्रशस्ति में उल्लेख्य विषयों का पूर्वरूप पहले ही
स्थिर कर लिया होगा और यह सम्भव है कि चण्डीशतक की वृत्ति सं० १५०५
से भी पहले रची गई हो ।
 
महाराणा कुम्भकर्ण की सामरिक, राजनीतिक और साहित्यिक उपलब्धियों
के विषय में समसामयिक इमारतें और शिलालेखादि प्राप्त हैं, यह सौभाग्य की
बात है । इन विषयों पर संशोधक विद्वानों ने समय-समय पर पर्याप्त प्रकाश
भी डाला है; उन्हीं बातों को दोहराना यहाँ संगत नहीं होगा 3
 
१. Central Library, Baroda Ms. No. 1133, p. 66 b
 
२. पुण्ये पञ्चदशे शते व्यपगते पञ्चाधिके वत्सरे
माघे मासि वलक्षपक्षदशमीदेवेज्यपुष्पागमे ।
कीर्तिस्तम्भमकारयन्नरपतिः श्रीचित्रकूटाचले
नानानिर्मित निर्ज रावत र मेरोहंसन्तं श्रियम् ॥१८५॥
 
३. महाराणा के पारिवारिक जीवन की चर्चा का यहां पर स्पर्श नहीं किया गया है, मुख्यतः
उसको सन्तति का । म. म. गौरीशंकरजी ओझा ने भाटों की ख्यातों के आधार पर कुम्भकर्ण
के ग्यारह पुत्रों के नाम उदयसिंह, रायमल, नगराज, गोपालसिंह, आसकरण, प्रमरसिंह,
गोविंददास, जैतसिंह, महरावण, क्षेत्रसिंह और अचलदास लिखे हैं। इनके प्रतिरिक्त उसको
एकमात्र पुत्री रमाबाई का भी उल्लेख है, जिसका विवाह जूनागढ़ के अन्तिम राव मण्डलीक
 
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