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शिव को उक्ति
 
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जया की उक्ति
 
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22
 
27
 
विजया की उक्ति
 
कुमार की उक्ति
देवताओं की उक्ति
 
दैत्य (महिष) की उक्ति
 
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[ २३ ]
 
विजया के प्रति
 
पार्वती के प्रति
 
पार्वती के प्रति
 
देवपत्नियों के प्रति
 
देवताओं के प्रति
 
शिव के प्रति
देवताओं के प्रति
 
गणेश के प्रति
 
देवी के प्रति
 
देवों के प्रति
 
देवी के प्रति
 
कुमार के प्रति
 
शिव के प्रति
 
प्रमथगण के प्रति
स्वोक्ति
 
पद्याङ्क
 
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22
 
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१२
 
१४, ३०, ८८
 
८६
 
३३
 
१४, ३८, ६६, ८६
 
३२
 
शेष पद्यों में कवि ने पार्वती, उमा, भद्रकाली, कात्यायनी, गौरी, देवी,
आर्या, शर्वारणी, रुद्राणी, ऋद्रिकन्या आदि नामों से विविध मुद्राओं में स्वयं
देवी अथवा उसके वाम चरण को, बाण या कुमार द्वारा पाठकों का मङ्गल
करने, उनको पवित्र करने तथा उनके दुरितों का नाश करने की कल्याण-
कामना की है ।
 
२३, ३४, ५७, ६५, ८०
 
२७, ७६, ७७, ८१, ८२
८३, ८५, १००
 
२८
 
६२, ६१
 
३५
 
६२
 
शतक के सभी पद्य स्रग्धरा वृत्त में निर्मित हैं, केवल छः पद्य ( २५, ३२,
४६, ५५, ५६ प्रौर ७२ वाँ) शार्दूलविक्रीडित में हैं। इस परिवर्तन का कोई
स्पष्ट कारण समझ में नहीं प्राता । ऐसा लगता है कि पहले से इसके लिए
कोई आयोजना सङ्कल्पित नहीं थी; समय-समय पर जब जैसा पद्य बना वही
शतक में संकलित कर लिया गया। यह भी सम्भव है कि पहले कवि ने सप्त-
तिका' ही रच कर विराम कर दिया हो और बाद में जब कुछ प्रौर पद्य रचे
गए तो उन्हें मिला कर मयूर की स्पर्धा में शतक - संज्ञा दी गई हो । वैसे, सिद्धि
 
R. A Catalogue of South Indian Sanskrit Manuscripts (especially those
of the Whish collection) in the Royal Asiatic Society, London,
Compiled by M. Winternitz, 1902.
 
CC-0. RORI. Digitized by Sri Muthulakshmi Research Academy