2023-03-13 13:34:38 by ambuda-bot
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हुई कंचुक को सन्धियां सर्वोपरि हैं।'
इस पद्य में शरवर्षा करती हुई चण्डी के सहज स्वाभाविक वर्णन के साथ-
साथ स्त्रियों द्वारा कंचुक और वलय धारण करने के रिवाज की भी सूचना
मिलती है ।
[ २० ]
एक स्थल पर महिष देवी के प्रति व्यङ्ग्य करता है- 'स्त्री को पति का या
पुत्र का ही बल होता है । तुम्हारे तो पति और दोनों पुत्रों को ही हालत खस्ता
है । शङ्कर का पुत्र कार्तिकेय तो अभी बच्चा है; मिट्टी में खेलने योग्य है, वह
युद्ध में भाग लेना क्या जाने ? स्वयं शिवजी के शिर में गर्मी चढ़ी हुई है इसलिए
चन्द्रमा को माथे पर धरे हुए हैं, उनका शरीर भी स्वस्थ नहीं है इसीलिए वे
शरीर पर राख मलते रहते हैं; अब रह गया हाथी के मुंह वाला गणेश, सो
उसका दाँत पहले ही टूट चुका है, फिर वह मोटे शरीर से विह्वल है अथवा एक
दाँत कर-स्वरूप देकर दुःखी हो गया है, इसलिए अब युद्ध के प्रति ठण्डा पड़ गया
है । तुम्हें धिक्कार है, अब कहाँ जाती हो ?' इस प्रकार अपने मन में
खुश हो-हो
कर देवी के प्रति लगने वाले वचन कहने वाले महिषरूपधारी दुष्ट दैत्य का
बाएं पैर की ठोकर से वध करती हुई पार्वती आपकी रक्षा करे
मघवा (इन्द्र) के वज्र को भी लज्जित करने वाले प्रघवान (पापी) देव-
शत्रु महिष को तुरन्त ही मृत्युरूपी लम्बी नींद में सुला देने के बाद, जब ( उससे
उत्पन्न होने वाला) भय समाप्त हो गया तो अपने निज-स्वभाव का स्मरण
करती हुई (स्वस्थता को प्राप्त होती हुई) देवी के तोनों नेत्रों में से को की
लाली तीन रक्त राशियों के समान बाहर निकल गईं ( क्रोध शान्त होने पर
वह रक्तता बाहर आ गई ) इस कारण महिष पर त्रिशूल के वार से बने
गुफाओं जैसे घावों में से निकले हुए रक्त से भरे समुद्र और भी लाल हो गए ।
१.
T
चक्षुदिक्षु क्षिपन्त्याश्चलित कमलिनीचारुकोशाभिताम्र
मन्द्रध्वानानुयातं झटिति वलयितो मुक्तबारणस्य पारणेः ।
चण्ड्या: सव्यापसव्यं सुररिपुषु शरान् प्ररयन्त्या जयन्ति
त्र ट्यन्तः पीनभागे स्तनचलनभरात् सन्धयः कञ्चुकस्य ॥७०॥
बालोऽद्यापीशजन्मा समरमुडपभृत् भस्मलीलाविलासी
नागास्यः शातदन्तः स्वतनुकरमदाद् विह्वलः सोऽपि शान्तः ।
धिग्यासि क्वेति दृप्तं मृदिततनुमदं दानवं संस्फुरोक्तं
पायावः शैलपुत्री महिषतनुभृतं निघ्नती वामपाष्र्ष्या ॥८२॥
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इस पद्य में शरवर्षा करती हुई चण्डी के सहज स्वाभाविक वर्णन के साथ-
साथ स्त्रियों द्वारा कंचुक और वलय धारण करने के रिवाज की भी सूचना
मिलती है ।
[ २० ]
एक स्थल पर महिष देवी के प्रति व्यङ्ग्य करता है- 'स्त्री को पति का या
पुत्र का ही बल होता है । तुम्हारे तो पति और दोनों पुत्रों को ही हालत खस्ता
है । शङ्कर का पुत्र कार्तिकेय तो अभी बच्चा है; मिट्टी में खेलने योग्य है, वह
युद्ध में भाग लेना क्या जाने ? स्वयं शिवजी के शिर में गर्मी चढ़ी हुई है इसलिए
चन्द्रमा को माथे पर धरे हुए हैं, उनका शरीर भी स्वस्थ नहीं है इसीलिए वे
शरीर पर राख मलते रहते हैं; अब रह गया हाथी के मुंह वाला गणेश, सो
उसका दाँत पहले ही टूट चुका है, फिर वह मोटे शरीर से विह्वल है अथवा एक
दाँत कर-स्वरूप देकर दुःखी हो गया है, इसलिए अब युद्ध के प्रति ठण्डा पड़ गया
है । तुम्हें धिक्कार है, अब कहाँ जाती हो ?' इस प्रकार अपने मन में
खुश हो-हो
कर देवी के प्रति लगने वाले वचन कहने वाले महिषरूपधारी दुष्ट दैत्य का
बाएं पैर की ठोकर से वध करती हुई पार्वती आपकी रक्षा करे
मघवा (इन्द्र) के वज्र को भी लज्जित करने वाले प्रघवान (पापी) देव-
शत्रु महिष को तुरन्त ही मृत्युरूपी लम्बी नींद में सुला देने के बाद, जब ( उससे
उत्पन्न होने वाला) भय समाप्त हो गया तो अपने निज-स्वभाव का स्मरण
करती हुई (स्वस्थता को प्राप्त होती हुई) देवी के तोनों नेत्रों में से को की
लाली तीन रक्त राशियों के समान बाहर निकल गईं ( क्रोध शान्त होने पर
वह रक्तता बाहर आ गई ) इस कारण महिष पर त्रिशूल के वार से बने
गुफाओं जैसे घावों में से निकले हुए रक्त से भरे समुद्र और भी लाल हो गए ।
१.
T
चक्षुदिक्षु क्षिपन्त्याश्चलित कमलिनीचारुकोशाभिताम्र
मन्द्रध्वानानुयातं झटिति वलयितो मुक्तबारणस्य पारणेः ।
चण्ड्या: सव्यापसव्यं सुररिपुषु शरान् प्ररयन्त्या जयन्ति
त्र ट्यन्तः पीनभागे स्तनचलनभरात् सन्धयः कञ्चुकस्य ॥७०॥
बालोऽद्यापीशजन्मा समरमुडपभृत् भस्मलीलाविलासी
नागास्यः शातदन्तः स्वतनुकरमदाद् विह्वलः सोऽपि शान्तः ।
धिग्यासि क्वेति दृप्तं मृदिततनुमदं दानवं संस्फुरोक्तं
पायावः शैलपुत्री महिषतनुभृतं निघ्नती वामपाष्र्ष्या ॥८२॥
CC-0. RORI. Digitized by Sri Muthulakshmi Research Academy