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[ १९ ]
 
द्वारा कलुषित हो गई ( इसलिए मैंने उस दैत्य को समाप्त कर दिया ।) '
 
इस पद्य में पति के प्रति सपत्नी को लेकर स्त्री-सुलभ व्यङ्गयोक्ति है ।
कैसी अच्छी चुटकी ली है ! हे शम्भो ! आप जिसको इतना मान करके सिर
चढ़ाए रहते थे वही महिष द्वारा कलुषित हो गई। साथ ही, इस पद्य में 'अभून्नि-
स्सपत्नोऽत्र कोऽपि, ' इस वाक्य से पति का सीधा नाम न लेने के भारतीय
शिष्टाचार का भी पता चलता है ।
 
देवी से पूर्व सभी देवताओं ने अपने-अपने बलबूते पर पौरुष में मदमाते
महिष से टक्कर ली । परिणाम यह हुआ कि (ग्यारहों) रुद्रों का वृन्द नौ-दो
ग्यारह हो गया, सूर्य के भी पसीने आ गए, वज्रवारी इन्द्र का वज्र चकनाचूर
हो गया, (बेचारे) चन्द्रमा की तो हिम्मत ही टूट गई, हवा की भी हवा बन्द
हो गई, कुवेर ने वैर त्याग कर मैदान छोड़ दिया और वैकुण्ठ (विष्णु) का
अभी कुण्ठित (भौंटा) हो गया । जब देवों की विघटित शक्ति का यह
हाल हुआ तो उन्हीं की सङ्घीभूत शक्ति सात्विक भाव-समृद्ध-भवानी ने उस
मदोन्मत्त महिष का निर्विघ्न ( सहज हो में) हनन कर दिया।
 

 
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दैत्यसेना पर बाण चलाती हुई देवी के श्रृङ्ग संचालन का चमत्कारिक
वर्णन कवि ने इस प्रकार किया है- चञ्चल कमलिनी के सुन्दर कोश के समान
रक्त नेत्रों को सावधानी से दिशाओं में प्रेरित करती हुई (घुमाती हुई)
चण्डी जब बाण छोड़ती थी तो बाणों की गम्भीर ध्वनि के अनुरूप ही
उसके हाथों के वलयों से आवाज़ पैदा होती थी अर्थात् वलयों की खनखनाहट
बाणों की सनसनाहट का साथ दे रही थी। इस प्रकार दाएं और बाएं देव-
शत्रुओं पर शरवर्षा कर रही चण्डी के स्तनों की हलचल के कारण उसके पीन
भाग (ऊपरी पुष्ट भागों) में कंचुक की सन्धियां (जोड़ ) टूट गईं; वही टूटती
 
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मेरी मे रौद्रशृङ्गक्षतवपुषि रुपो नैव नीता नदीनां
भर्तारो रिक्ततां यत्तदपि हितमभून्निःसपत्नोऽत्र कोऽपि ।
एतन्नो मृष्यते यन्महिषकलुषिता स्वर्धुनी मूर्ध्नि मान्य
शम्भोभिन्द्याद् हसन्ती पतिमिति शमितारातिरोतीरुमा वः ॥ ३१ ॥
 
विद्राणे रुद्रवृन्दे सवितरि तरले वज्रिरण ध्वस्तवज्रे
जाताऽऽशङ्क शशाङ्क विरमति मरुति त्यक्तवैरे कुबेरे ।
वैकुण्ठे कुण्ठितास्त्रे महिषमतिरुषं पौरुषोपघ्ननिघ्नं
निर्विघ्नं निघ्नती वः शमयतु दुरितं भूरिभावा भवानी ॥६६॥
 
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