2023-03-13 19:46:20 by manu_css
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परे रहता है, अपगत हो जाता है
है तभी महिष केन्द्र को छोड़ कर हट जाता है, यही शाश्वत चक्र है
इसीलिए देवी ने कहा कि इसके लिए कोई बहुत ब
श्रा
आवश्यकता नहीं है, केवल गत्यर्थसूचक पाद-प्रक्षेप से ही यह यन्त्र ठीक हो
जायगा
श्र
अन्तश्चरति रोचनाऽस्य प्राणादपनती ।
व्यख्यन् महिषो दिवम् ॥ ऋ० १०।१८९।२
प्रत्येक वस्तु के चारों ओर एक मण्डल होता है, जो उसको द्युमण्डल कहलाता
है; उस मण्डल में केन्द्र से परिधि और परिधि से केन्द्र की
अपान की रोचना या रोशनी की गति और
इस गत्यागति-व्यापार को छोड़ कर मलीमस महिष अलग हो जाता है । यह
तमोपुञ्ज महिष रूप जब प्र
में असमर्थ हुआ ।
प्र
पाद-प्रक्षेप से ही उस चक्र को पुनः गतिमान कर दिया; महिष का वध हो
गया ।
से
गया ।
चण्डीशतक के श्लोक सं० २५, ४५ व ५४ में कंस के हाथ से छूट कर
प्रा
प्रकाश में उत्पतित होने वाली योगमाया को ही महिषमर्दिनी देवी कहा गया है ।
महामाया अव्यय परमात्मतत्त्व की निरपेक्ष शक्ति का नाम है। योगमाया उसी का
सापेक्ष पक्ष है । योगमाया महामाया से परा
योगमाया का रहता है, प्रतिसर्ग में उसका अभिधान महामाया होता है क्योंकि
वह तदभिमुख होती है
'योगमाया' कहलाती है । वस्तु
सर्वदेवगुणान्वित रूप है ।
देवी ने पादप्रहार करके असुर को त्रिशूल से
से
से
इसका संकेत चण्डीशतक के ७०वें श्लोक में है, जिसमें देवगण देवी से प्रार्थना
करते हैं कि, 'हे देवी ! इसका वध निस्त्
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