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तब तक तमोरूप महिष केन्द्र को अभिभूत नहीं कर पाता, वह उस स्थान से
परे रहता है, अपगत हो जाता है । जब प्राण को अपान का बल प्राप्त हो जाता
है तभी महिष केन्द्र को छोड़ कर हट जाता है, यही शाश्वत चक्र है' ।
इसीलिए देवी ने कहा कि इसके लिए कोई बहुत बड़ी हलचल करने को
श्रावश्यकता नहीं है, केवल गत्यर्थसूचक पाद-प्रक्षेप से ही यह यन्त्र ठीक हो
जायगा ।
 
श्रन्तश्चरति रोचनाऽस्य प्राणादपनती ।
 
व्यख्यन् महिषो दिवम् ॥ ऋ० १०१२८१२
 
प्रत्येक वस्तु के चारों ओर एक मण्डल होता है, जो उसको द्युमण्डल कहलाता
है; उस मण्डल में केन्द्र से परिधि और परिधि से केन्द्र की भोर प्राण और
अपान की रोचना या रोशनी की गति और प्रगति रूपी क्रिया होती रहती है ।
इस गत्यागति-व्यापार को छोड़ कर मलीमस महिष अलग हो जाता है । यह
तमोपुञ्ज महिष रूप जब प्रवल हुआ तो विभक्त देव-प्राण उसको अपगत करने
में असमर्थ हुआ ।
प्रतः सम्मिलित शक्तिरूप देवी ने प्रक्षुब्ध रह कर किंचित्
पाद-प्रक्षेप से ही उस चक्र को पुनः गतिमान कर दिया; महिष का वध हो
 
गया ।
 
से
 
चण्डीशतक के श्लोक सं० २५, ४५ व ५४ में कंस के हाथ से छूट कर
प्राकाश में उत्पतित होने वाली योगमाया को ही महिषमर्दिनी देवी कहा गया है ।
महामाया अव्यय परमात्मतत्त्व की निरपेक्ष शक्ति का नाम है। योगमाया उसी का
सापेक्ष पक्ष है। योगमाया महामाया से पराकुगति है । सर्ग-क्रिया में सब चरित्र
योगमाया का रहता है, प्रतिसर्ग में उसका अभिधान महामाया होता है क्योंकि
वह तदभिमुख होती है । निरपेक्ष महामाया से योग होने के कारण ही वह
'योगमाया' कहलाती है । वस्तुतः वह सर्वप्रपञ्चकारणभूता आद्याशक्ति का ही
सर्वदेवगुणान्वित रूप है ।
 
देवीने पादप्रहार करके असुर को त्रिशूल से ग्राहत किया तो भी उसके मुख
से
से उसके प्रारण अर्धनिष्क्रांत ही हुए; तब देवी ने उसका खड्ग से वध किया ।
इसका संकेत चण्डीशतक के ७०वें श्लोक में है, जिसमें देवगण देवी से प्रार्थना
करते हैं कि, 'हे देवी ! इसका वध निस्त्रिश (खड्ग) के द्वारा ही उचित है,
 
१. चण्डीशतकम्, इलो० ६ ।
 
२. श्लोक १३ में भी यही भाव है कि देवी के शरीरावयवों में कोई विकृति नहीं भाई ।
 
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