2023-03-13 19:45:13 by manu_css
This page has been fully proofread once and needs a second look.
की
होकर प्रबल हो जाने पर सहज
प्राकृतिक शरीरावयवों को संयत रहने और विकृत न होने को कहती है ताकि
वह कोपरूपी
तक का उदय नहीं होने देना चाहती
हैं, ओठ फ
सम्हालने लगते हैं । परन्तु
हलचल उत्पन्न नहीं होने देना चाहती। वह कहती है-
'हे भ्रू
मत करो ; हे अधर ! अनवसर ही यह कैसा वैकल्य ? हे मुख ! अपना (
शान्त ) रङ्ग मत छोड़ो ; अरे हाथ ! यह तो प्राणी ही है, इससे कलह करने
के लिए त्रिशूल क्यों सम्हाल रहे हो ? इस प्रकार अपने जिन शरीरावयवों में
में कोप के चिह्न प्रकट होने लगे थे उनको प्रकृतिस्थ करके देवी ने मरुद्गणों
(देवों) के शत्रु के प्राण हरने वाला जो पद ( चरण ) उसके ( महिष के ) सिर
पर घर दिया, वह आपके पापों का नाश करे ।'
महिष पारमेष्ठ्य असुर है । यह परमेष्ठी से ही उत्पन्न देवात्मक सौरमण्डल
पर आक्रमण करता है
पारमेष्ठ्य को महिष कहा गया है
लेता है वह महिष है। उक्त श्लोक में महिष को मरुदसुहृद् अर्थात् मरुद्गण
( देवों) का असुहृद् कहा गया है । मरुत् वायु का भी पर्याय है । सौर मण्डल
की रचना प्राण और अपान के सम्मिलित स्पन्दन से हुई है
परमेष्ठी प्राणत् हैं और चन्द्र तथा पृथ्वी अपानत् रूप हैं । केन्द्र से परिधि की
भो
ओर जो बल प्रसारित होता है वह प्राणक्रियासम्पन्न है और जब वह परिधि
से केन्द्र की ओर लौटता है तब वह अ
क्रिया ही विश्वव्यापार का मूलाधार है । जब तक यह क्रिया संतुलित रहती है
-----------
[^१
T
मा भांक्षीर्विभ्रमं
पा
इत्युद्यत्कोपकेतू
न्यस्तो वो मूर्ध्नि मुष्या
CC-0. RORI. Digitized by Sri Muthulakshmi Research Academy