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चौथा चरण नहीं बैठ रहा था । वे बार-बार इन तीन चरणों को दोहरा रहे
 
थे-

 
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गताप्राया रात्रिः कृशतनुशशी शोशीर्यंत इव

प्रदीपोऽयं निद्रावशमुपगतो घूर्णत इव ।

प्रणामान्तो मानस्तदपि न जहासि ऋषक्रुधमहो
 

 
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इतने में ही मयूर जा पहुँचे और उन्होंने अप्रत्यक्ष रह कर ये पंचिक्तियाँ सुन लीं ।

बहुत रोका उन्होंने अपने प्रापको, परन्तु चौथे चरण की पूर्ति में यह पद्यालो
ली
उनके मुख से स्पष्ट निकल ही पड़ी-
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कुचप्रत्यासत्त्या हृदयमपि ते चण्डि कठिनम् ।
 
[^१]
 
इसको सुन कर कवि -हृदय वारबाण तो प्रसन्न हुए, परन्तु उनकी पत्नी पहले

तो लज्जा से ग गई, फिर क्रोध से भर गई । उसने मयूर को कुष्ठोठी होने का

शाप दे दिया जिसकी निवृत्ति के लिए उन्होंने सूर्य की आराधना की और सूर्य-

शतक की रचना की, जो मयूरशतक के नाम से भी प्रसिद्ध है।[^२] इस रचना से

प्रभावित हो कर ही उक्त पद्य में से 'चण्डि' शब्द को लेकर बाण ने प्रतिस्पर्धा में

'चण्डोडीशतक' रच डाला । कुछ लोगों का कहना है कि स्वयं बाण ने क्रुद्ध होकर

मयूर कवि को शाप दिया और मयूर ने पलट कर उसको शाप दे डाला । बाद

में, दोनों ने अपने-अपने इष्ट देवता के प्रसादनार्थ उभय शतकों का प्रणयन किया

और दोनों ही शापमुक्त हो गए ।
 

 
ऐसा भी कहते हैं कि जब मयूर शापमुक्त हुए तो उनकी स्पर्धा में बाण

ने अपने अंगों को आहत कर लिया और फिर चण्डी के प्रसाद से पुन: स्वास्थ्य-

लाभ किया ।
 

 
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.] बारग कह रहे थे -- --'रात प्रायः बीत चुकी है, क्षीण शरीर वाला चन्द्रमा ढल रहा है,

यह दीपक भी मानो नींद में भर कर चक्कर खोखा रहा है, प्रायः प्रणाम करते ही

मानिनियां मान जाती हैं. पर तुम्हारा क्रोध है कि शांत ही नहीं हो रहा है।' इतने में मयूर

ने कहा 'हे चण्डि ? ( कोपने), ऐसा लगता है कि कठिन कुचों के पास रहने से तुम्हारा

हृदय भी कठोर हो गया है ।'
 

 
[^
.] कहते हैं कि मयूर ने एक प्रविवेकपूर्ण काव्य लिखा जो मयूराष्ट्रक कहलाता है । इसमें उसने

अपनी बहिन के शारीरिक सौन्दर्य का श्रमर्यादित रूप से वर्णन किया। इसी पर उसने

अप्रसन्न होकर उसको शाप दिया था। इस घ्रष्टक में तीन पद्य स्रग्धरा में हैं भोर शेष

पाँच शार्दूलविक्रीडित छन्द में । इन पद्यों को जी. पी. क्वेकनबोस ने संकलित

करके प्रकाशित किया है ।
 

G. P. Quakenbos; the Sanskrit
poems of Mayura, New York, 1917.
(Columbia University, Indo-Iranian Series)
 
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poems of Mayura, New York, 1917.
 
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