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करे । प्रमत्त होने के कारण ही वृष्णिवंश के लोग (एक दूसरे पर)
तृण का प्रहार कर-कर के मर गए ॥ ११ ॥
 
ईर्ष्या कलहमूलं स्यात् क्षमा मूलं हि सम्पदाम् ।
ईर्ष्यादोषाद् विप्रशापमवाप जनमेजयः ॥ १२ ॥
 
ईर्ष्या से कलह उत्पन्न होता है और क्षमा से ऐश्वर्य की उत्पत्ति
होती है। ईर्ष्या दोष के कारण ही जनमेजय को विप्र-शाप मिला ॥ १२ ॥
 
न त्यजेद् धर्ममर्यादामपि क्लेशदशां श्रितः ।
हरिश्चन्द्रो हि धर्मार्थी सेहे चण्डालदासताम् ॥ १३ ॥
 
क्लेश की हालत में पड़कर भी धर्म की मर्यादा नहीं छोड़नी
चाहिए । धर्म की रक्षा के लिए ही हरिश्चन्द्र ने चाण्डाल का सेवक
बनना स्वीकार कर लिया था ॥ १३ ॥
 
न सत्यव्रतभङ्गेन कार्यं धीमान् प्रसाधयेत् ।
ददर्श नरकक्लेशं सत्यनाशाद् युधिष्ठिरः ॥ १४ ॥
 
बुद्धिमान् मनुष्य को चाहिए कि वह सत्य का व्रत तोड़कर किसी
काम को सफल न बनावे । सत्य को छोड़ने के कारण ही युधिष्ठिर को
नरक देखना पड़ा था ॥ १४ ॥
 
कुर्वीत संगतं सद्भिर्नासद्भिर्गुणवर्जितैः ।
प्राप राघवसंगत्या प्राज्यं राज्यं विभीषणः ॥ १५ ॥
 
सदा सत्पुरुषों की ही संगति करनी चाहिए, गुणरहित की नहीं।
श्रीराम की संगति से ही विभीषण को विशाल राज्य प्राप्त हुआ ॥ १५ ॥
 
मातरं पितरं भक्त्या तोषयेन्न प्रकोपयेत् ।
मातृशापेन नागानां सर्पसत्त्रेऽभवत् क्षयः ॥ १६ ॥
 
माता-पिता को अपनी भक्ति से प्रसन्न रखना चाहिए, कुपित