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<p lang="hi" text="anuvada" n="91">किसी का वध करने के लिए मारण-प्रयोग, कुहक-क्रिया आदि
तांत्रिक प्रयोग कभी नहीं करने चाहिए । लक्ष्मण जी ने कृत्या आदि
जैसे उग्रतांत्रिक प्रयोग करने वाले इन्द्रजित् मेघनाद का वध कर
डाला था ॥ ९१ ॥</p>
<verse lang="sa" text="mula" n="92">ब्रह्मचारी गृहस्थः स्याद् वानप्रस्थो यतिः क्रमात् ।
आश्रमादाश्रमं याता ययातिप्रमुखा नृपाः ॥ ९२ ॥</verse>
<p lang="hi" text="anuvada" n="92">मनुष्य को क्रमशः ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास इन
चार आश्रमों में जाना चाहिए । ययाति आदि प्राचीन राजाओं ने
इसी क्रम से एक आश्रम के बाद दूसरे आश्रम में प्रवेश &lt;error&gt;किया था&lt;/error&gt;&lt;fix&gt;किये थे&lt;/fix&gt; ॥ ९२ ॥</p>
<verse lang="sa" text="mula" n="93">कुर्याद् व्ययं स्वहस्तेन प्रभूतधनसंपदाम् ।
अगस्त्यभुक्ते वातापौ कोषस्यान्यैः कृतो व्ययः ॥ ९३ ॥</verse>
<p lang="hi" text="anuvada" n="93">आवश्यकता से अधिक धन-संपत्तियों का व्यय अपने हाथों से
कर देना चाहिए । नहीं तो अगस्त्य द्वारा वातापि नामक दैत्य का
भक्षण किये जाने पर जैसे दूसरों ने उसके कोश का व्यय किया उसी
प्रकार अन्य लोग व्यय कर डालेंगे ॥ ९३ ॥</p>
<verse lang="sa" text="mula" n="94">जन्मावधि न तत् कुर्यादन्ते संतापकारि यत् ।
सस्मारैकशिरःशेषः सीताक्लेशं दशाननः ॥ ९४ ॥</verse>
<p lang="hi" text="anuvada" n="94">अन्त में सन्ताप पहुँचाने वाले काम जीवन में कभी न करने
चाहिए । एक सिर बच जाने पर भी रावण सीता के निमित्त से आई
हुई विपत्ति को स्मरण करता रहा ॥ ९४ ॥</p>
<verse lang="sa" text="mula" n="95">जराशुभ्रेषु केशेषु तपोवनरुचिर्भवेत् ।
अन्ते वनं ययुर्धीराः कुरुपूर्वा महीभुजः ॥ ९५ ॥</verse>
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